अर्धसैनिक बलों की 41 कंपनियों, चार सैन्य कॉलम और चार राज्यों की पुलिस को मिलाकर सात हजार जवान जिस प्रकार हरियाणा के सिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा की तलाशी ले रहे हैं उसे देर से हुई सही कार्रवाई कहा जा सकता है। इस कार्रवाई में बाबा गुरमीत राम रहीम के अवैध कामों का पता तो चलेगा ही लेकिन, जो कुछ मिलेगा उसे भारतीय राज्य व्यवस्था की नाकामी और समाज की विडंबना का जखीरा भी कहा जा सकता है। बाबा के आश्रम में जितने तरह के पूजा स्थल, आवासीय इमारतें, उद्योग, शैक्षणिक, चिकित्सीय संस्थान और रहस्य रोमांच की गुफाओं समेत डिज़्नीलैंड जैसे मनोरंजक इंतजाम दिखाई पड़ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वहां धर्म के नाम पर समांतर और स्वायत्त सत्ता चल रही थी। चर्चा होनी ही चाहिए कि वहां कितने प्रकार की अवैध संपत्ति, कारोबार और आपराधिक कारनामों के सबूत मिल रहे हैं लेकिन, उससे ज्यादा चर्चा यह होनी चाहिए कि हमारी सरकारें अब तक कर क्या रही थीं? लगता तो यही है कि हमारी व्यवस्था को चलाने वाले अपने निहित स्वार्थ के लिए बाबा के आगे नतमस्तक थे। आज भी अगर अदालत ने आदेश न दिया होता तो शायद ही कार्रवाई हो पाती। तात्पर्य यह है कि कार्यपालिका में एक तरह के पक्षपात की प्रवृत्ति पैदा हो चुकी है, जो लोकतंत्र के लिए घातक है लेकिन, मामला इतना ही नहीं है। पंजाब और हरियाणा में पनपने वाले डेरों के कारोबार के पीछे वह जाति व्यवस्था जिम्मेदार है, जो समाज के दलितों, पिछड़ों को मंदिरों और गुरुद्वारों में समता का अधिकार नहीं देती। उसी नाते वे जाति के वर्चस्व को चुनौती देने वाले डेरों में जाते हैं और वहां जनता की भारी शक्ति का लाभ उठाकर बाबा और धर्मगुरु निरंकुश हो जाते हैं। इससे नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक वीएस नायपाल याद आ जाते हैं जो 'इंडिया मिलियन म्यूटिनीज नाउ' में कहते हैं कि भारत में लाखों बगावतें होती रहती हैं। अपनी मशहूर किताब 'गाड मार्केट' में विश्लेषण करते हुए मीरा नंदा कहती हैं कि राज्य, मंदिर और कॉर्पोरेट के गठजोड़ ने बाबाओं की सत्ता को सुदृढ़ और भारत का हिंदूकरण किया है। अगर इस तरह के गठजोड़ को फिर घटित होने से रोकना है तो न सिर्फ समाज सुधार की प्रक्रिया को तेज करना होगा बल्कि जाति और धर्म के आधार पर वोटों का प्रसाद लेने की बजाय उनका लोकतांत्रीकरण करते हुए भारत का बेहतर भविष्य बनाना होगा।
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