किसी भी लोकतंत्र में विपक्षी एकता की जरूरत से कैसे इनकार किया जा सकता है। फिर देश की मौजूदा स्थिति में तो यह और भी जरूरी है। एकजुट और मुद्दों पर बात करने वाला विपक्ष सत्तारूढ़ दल के लिए भी फायदेमंद होता है क्योंकि तब विकास के एजेंडे पर उसके बने रहने की संभावना बढ़ जाती है। हमारे यहां विपक्ष की एकता के प्रयास जब भी हुए हैं तो यह घोड़े के आगे गाड़ी लगाने जैसी कवायद सिद्ध होती रही है। यानी मुद्दा सामने रखकर एकजुट होने की बजाय नेता सामने रखकर एकता की कोशिश होती है क्योंकि निगाह एकता के परे सत्ता पर होती है। अंततरू नेताओं की महत्वाकांक्षाओं में टकराव बिखराव का नतीजा लेकर आता है। इस मायने में दिल्ली में शरद यादव की पहल पर साझी विरासत बचाने के नाम पर हुई 16 विपक्षी दलों की बैठक को सार्थक पहल कहा जा सकता है क्योंकि मौजूदा परिस्थितियों में विपक्षी एकता के लिए इससे बेहतर मुद्दा नहीं हो सकता। यह नीतीश कुमार के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने वाले शरद यादव का व्यक्तिगत शक्ति प्रदर्शन भी था। अब राजद नेता लालू यादव द्वारा अगले हफ्ते पटना में आयोजित रैली में विपक्ष को फिर एकजुटता दिखाने का मौका है। लेकिन ये कवायदें तब तक सांकेतिक ही कहीं जाएंगी जब तक विपक्षी दल यह यकीन नहीं दिला पाते कि वे भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का ठोस विकल्प दे सकते हैं। इस दिशा में विपक्ष के सामने कई चुनौतियां हैं। सारे दल विभिन्न प्रदेशों में आमने-सामने हैं। वे प्रदेशस्तरीय प्रतिद्वंद्विता को कितना छोड़ पाते हैं। उस पर ही सारा दारोमदार है। फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता शिखर पर है। यही वजह है कि उन्हें सामने रखकर भाजपा को चुनाव लड़ना सुहाता है और इसीलिए विपक्ष को भी कोई नेता सामने रखना पड़ेगा। नीतीश कुमार के जाने से बड़ा रिक्त स्थान पैदा हो गया है। इस जमावड़े में अखिल भारतीय मौजूदगी वाली पार्टी कांग्रेस ही है पर उसमें नेतृत्व का संकट है। ऐसे में क्या यह संभव है कि इन सारे मुद्दों को परे रखकर साझा विरासत को बचाने का मुद्दा पूरा विपक्ष प्रखरता से उठाए और देश की आत्मा को झंकृत कर दे पर यह लंबी लड़ाई होगी। धीरज लगेगा साथ ही भाजपा की सेंधमारी से बचने की सतर्कता व इच्छा भी अनिवार्य होगी। ऐसा हुआ तो विभिन्न दलों के बीच एकता अपने आप स्थापित हो जाएगी।
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