ब्रिक्स देशों के नौवें शिखर सम्मेलन की शियामेन घोषणा में चीन ने आतंकी संगठनों की सूची में पाकिस्तान से गतिविधियां चलाने वाले लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद को शामिल किए जाने की सहमति देकर भारत ही नहीं एशिया और विश्व के साथ अपना भी भला सोचा है। पाकिस्तान के बेहद करीबी देश चीन की तरफ से ऐसा किया जाना भारत के दबाव का परिणाम है। विशेष तौर पर दोकलाम विवाद की पृष्ठभूमि में भारत के सुर में सुर मिलाकर चीन ने यह संदेश भी देना चाहा है कि आर्थिक वैश्वीकरण की प्रक्रिया तभी चल सकती है जब दुनिया में युद्ध व आतंकवाद के लिए कोई जगह न हो। यह देखना होगा कि चीन का यह रुख कब तक कायम रहता है। अभी तो चीन के इस बदले हुए रुख को भारत अपनी राजनयिक सफलता मान सकता है, क्योंकि इससे पहले चीन जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मौलाना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित किए जाने के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में खारिज करवा चुका है। चीन इस मुद्दे पर भारत का समर्थन करने वाली तीन वीटो वाली शक्तियों अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के दबाव को भी नकार चुका है। निश्चित तौर पर आतंकी संगठनों की यह सूची बहुत लंबी है। लेकिन संगठनों की इस सूची में पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामी मूवमेंट का भी नाम है, जो चीन के शिनजिंग प्रांत में उइगुर समूहों में अलगाववाद पैदा करने वाला समूह है। ब्रिक्स सम्मेलन में भारत, ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका समेत चीन का यह रुख उस चिंता से अलग है जो चीन पाकिस्तान के लिए जताता रहा है। हाल में जब नई अफगानिस्तान-पाकिस्तान नीति के एलान पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पाकिस्तान को सैन्य अनुदान देने के लिए कड़ी डांट पिलाई थी और आतंकियों के समर्थन की नीति की निंदा की थी तो चीन ने पाकिस्तान की भूमिका की तारीफ करते हुए कहा था कि आतंकवाद से संघर्ष में पाकिस्तान की हिरावल दस्ते की भूमिका को नजरंदाज नहीं करना हिए। मौजूदा रुख उससे काफी अलग है और यहां चीन आतंकवाद पर अपनी दोगली नीति छोड़कर स्पष्टवादिता के रास्ते पर बढ़ता हुआ दिखता है। लेकिन, चीन हमेशा इस रास्ते पर रहेगा इसकी गारंटी तभी हो सकती है जब भारत और रूस जैसे महत्वपूर्ण देश उससे सतत संवाद करें और अपने आर्थिक-राजनयिक हितों का उसके साथ तालमेल उठाएं।
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