एनडीए सरकार के मंत्रिमंडल में तीसरे फेरबदल की तैयारी के बीच यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि यह सब 2019 और उससे पहले होने वाले विधानसभा चुनावों में विजय के लिए हो रहा है या अच्छे दिन और नए भारत के लिए। हालांकि दावा यही किया जा रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने सभी मंत्रियों का ऑडिट किया है और उनके मूल्यांकन का आधार मंत्रालय से जुड़ी योजनाओं का क्रियान्वयन है और पार्टी की जिम्मेदारियों का लेखा-जोखा है। जिन मंत्रियों को हटाए जाने की चर्चा है उनके पीछे दो कारण प्रमुख हैं- आगामी चुनाव और उनका विभागीय प्रदर्शन। अगर इस्तीफे की पेशकश करने वाले ज्यादातर मंत्री उत्तर प्रदेश के हैं तो उसकी वजह साफ है कि वहां चुनाव हो चुके हैं और अब मध्यप्रदेश जैसे उन राज्यों पर ध्यान देना है जहां चुनाव होने हैं। वैसे उमा भारती, कलराज मिश्र और संजीव बालियान जैसे मंत्रियों का काम भी ऐसा नहीं रहा है कि वे मोदी मंत्रिमंडल के लिए अपरिहार्य बन सकें। काम कौशल विकास मंत्रालय का भी अच्छा नहीं रहा है लेकिन, राजीव प्रताप रुड़ी के हटाए जाने की वजह जनता दल (यू) के एनडीए में शामिल होने के बाद उस पार्टी को जगह देने की है। चुनाव के ही मद्देनजर उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर भारत के नए चेहरों को मंत्रिमंडल में जगह मिलने की उम्मीद है। अपनी योग्यता और काम के बावजूद सबसे दुर्भाग्यशाली मंत्री सुरेश प्रभु साबित हो सकते हैं, जिन्हें नीतियों और रेल हादसों ने पटरी से उतार रखा है। उनके मंत्रालय का परिवहन में विलय किए जाने की चर्चा है। अगर काम ही मूल्यांकन का आधार है तो सबसे पहले वित्त मंत्री पर गाज गिरनी चाहिए। आज अर्थव्यवस्था की जीडीपी दर तीन साल के सबसे निचले स्तर 5.7 प्रतिशत पर है और वे वित्त के साथ रक्षा मंत्रालय का भी जिम्मा संभाल रहे हैं। विदेश और गृह मंत्रालय के कामों का भी मूल्यांकन होना चाहिए। सबसे अच्छी बात यह है कि करीब पचास सहयोगी दल होने के बावजूद मनमोहन सरकार की तरह इस सरकार के कामकाज पर सहयोगी दलों का दबाव नहीं है। खराब बात यह है कि इसने अर्थव्यवस्था, कला, संस्कृति और समाज में सरकार या उससे जुड़े संगठनों का हस्तक्षेप बढ़ाया है। इसलिए पूरा देश सरकार का मुखापेक्षी हो गया है। यह स्थिति न तो लोकतांत्रिक समाज के लिए ठीक है और न ही खुली अर्थव्यवस्था के विकास के लिए।
No comments:
Post a Comment