केंद्र ने कश्मीर में अमन की बहाली के लिए खुफिया विभाग के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को मुख्य वार्ताकार नियुक्त कर सही दिशा में सकारात्मक कदम उठाया है। इसकी काफी दिनों से मांग चल रही थी और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती बार-बार प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से मिल भी रही थीं। भाजपा के असंतुष्ट नेता यशवंत सिन्हा और कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर इस दिशा में लंबे समय से प्रयास कर रहे थे। संभव है कि उन अलगाववादियों से भी अनौपचारिक वार्ता की गई हो, जो अक्सर आज़ादी से कम पर किसी वार्ता के लिए राजी नहीं होते। इसका संकेत तो तभी मिल गया था जब स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलान किया था कि कश्मीर समस्या का समाधान न गाली से होगा और न ही गोली से, बात बनेगी तो गले लगाने से। उनका यह एलान देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उस एलान के अनुरूप ही है कि कश्मीर पर संविधान नहीं इंसानियत के दायरे में बात होनी चाहिए। वाजपेयी ने श्रीनगर में इंसानियत और जम्हूरियत के साथ कश्मीरियत के दायरे में वार्ता करने का प्रस्ताव रखकर सभी का मन मोह लिया था और यासीन मलिक और शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता भी उनकी प्रशंसा करने लगे थे। लेकिन, अलगाववादी नेताओं के अड़ियल रवैए और वाजपेयी के फिर सत्ता में न आने से वह सिलसिला टूट गया था। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 2006 और 2007 में उसी तर्ज पर कश्मीर में तीन गोलमेज सम्मेलन कराए लेकिन, उनका नतीजा भी सिफर रहा। उस समय के वार्ताकार दिलीप पाडगांवकर और राधाकुमार ने कई समाधानों के साथ विस्तृत रपट भी दी थी, जिसका इस्तेमाल दिनेश्वर शर्मा भी कर सकते हैं। इसलिए देखना है कि अलगाववादियों से निपटने में माहिर कहे जाने वाले वार्ताकार शर्मा किन पक्षों को बातचीत की मेज तक ला पाते हैं। फारूक अब्दुल्ला की इस बात को भी नज़रंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि समाधान के लिए पाकिस्तान से भी बात होनी चाहिए। हालांकि, सवाल यह है कि पाकिस्तान प्रधानमंत्री शाहिद खकन अब्बासी की सरकार से होने वाली किसी वार्ता का वजन कितना होगा? निश्चित तौर पर सरकार की यह पहल बदली हुई नीति का परिणाम है, क्योंकि उसे लग गया है कि सुरक्षा बलों की सख्ती और नोटबंदी के मार्ग की सीमा आ चुकी है और आगे संवाद का ही मार्ग जाता है।
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