अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत सुधारने के लिए भारत सरकार ने दवाओं की बजाय टॉनिक देने का फैसला किया है, इसलिए उम्मीदों के बीच संदेह के सवाल भी उठने लगे हैं। मंगलवार को जैसे ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए अगले दो सालों में 2.11 खरब रुपए की पूंजी जुटाने का फैसला किया वैसे ही अगले दिन शेयर बाजार में बैंकों के शेयर उछलने लगे। भारतीय स्टेट बैंक के शेयर में जनवरी 2015 के बाद पहली बार 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई और एनएसई में 1.3 प्रतिशत का उछाल दर्ज किया गया। उधर सड़क निर्माण के काम में सात खरब रुपए निवेश के एलान के साथ भी चौतरफा उत्साह दिखाई दिया। वित्त मंत्री ने उन आलोचनाओं का भी जवाब देने का प्रयास किया है, जो पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और पूर्व विनिवेश मंत्री अरुण शौरी से शुरू होकर थामस पिकेटी के असमानता संबंधी आंकड़े और वैश्विक भूख सूचकांक में भारत के पतन संबंधी सर्वेक्षण के साथ सरकार को चारों तरफ से घेर रही थीं। गुजरात विधानसभा चुनाव के एलान के ठीक पहले लिए गए इस फैसले में एक राजनीतिक माहौल भी बनाने का प्रयास दिखाई पड़ता है। वजह साफ है कि गुजरात सिर्फ एक राज्य का चुनाव नहीं है वह भाजपा के राजनीतिक और आर्थिक मॉडल की अग्निपरीक्षा है और इसमें मौजूदा सरकार को खरा उतरना है। अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए उठाए गए इन कदमों से बैकों की पूंजी बढ़ने और कर्जलिए जाने में तेजी आने की उम्मीद है। स्थितियों के ठीक रहने की उम्मीद के साथ संदेह के सवाल भी जुड़े होते हैं। वैश्विक रेटिंग एजेंसी फ्लिच का कहना है कि भारतीय बैंकों को 2019 तक 65 अरब डॉलर पूंजी की जरूरत है, जबकि मौजूदा पूंजी उसकी आधी है। सरकार के एलान में इस पूंजी के जुटाए जाने का खाका भी स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा कर्ज के बाजार में होने वाली बढ़ोतरी के साथ वित्तीय घाटे को जीडीपी के 3.6 प्रतिशत तक रखने की चुनौती भी पेश होगी। इस कदम की कामयाबी के समक्ष बट्टे खाते का कर्ज और रुकी हुई परियोजनाएं सबसे बड़ी बाधा हैं अब देखना है सरकार उन्हें कैसे दूर करती है।
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