रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या के बीच हो रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की म्यांमार यात्रा भारत की पूरब को देखने वाली व्यापारिक नीति को नया आधार प्रदान करेगी और इस इलाके की सुरक्षा व्यवस्था में नया आयाम जोड़ेगी। इस तीन दिवसीय यात्रा में ग्यारह समझौते हुए हैं, जिनमें परिवहन परियोजनाओं समेत भूकम्प प्रभावित पैगोडा की मरम्मत शामिल है। लेकिन, मोदी की म्यामार की पहली दोतरफा यात्रा होने के नाते इसका विशेष महत्व है, क्योंकि इससे पहले वे 2014 में आसियान देशों की बैठक में गए थे तब वह बहुपक्षीय यात्रा थी। फिलहाल रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या ने दोनों देशों के बीच एक तरह की हलचल पैदा की है और अब देखना है कि स्टेट काउंसलर आंग सांग सू की और मोदी किस तरह का समाधान निकालते हैं। यह समस्या शरणार्थी समस्या होने के साथ आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाली समस्या भी है। हाल में राखाइन हिंसा में चार सौ रोहिंग्या के मारे जाने के बाद वे बड़ी संख्या में बांग्लादेश में प्रवेश कर रहे हैं और भारत की सीमा पर भी उनके घुसपैठ की चुनौती है। एक तरफ भारत अपने यहां रह रहे चालीस हजार रोहिंग्या को म्यांमार वापस भेजने की तैयारी कर रहा है तो दूसरी तरफ भारतीय सर्वोच्च न्यायालय इसके विरुद्ध दायर याचिका पर सुनवाई कर रहा है। विडंबना यह है कि म्यांमार उन्हें अपने नागरिकता कानून के तहत जातीय समूहों में शामिल नहीं करता। दोनों देशों के बीच 1400 किलोमीटर की लंबी सीमा के नाते भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की अशांति के कई दूसरे तार म्यांमार से जुड़ते हैं और भारत को उम्मीद है कि इस दौरे के बाद उस बारे में म्यांमार उसे ज्यादा आश्वस्त करेगा। इस बीच चीन की वन रोड वन बेल्ट नीति में शामिल होने के लिए म्यांमार पर दबाव है तो भारत उसे अपने पाले में रखना चाहेगा। यही वजह कि मोदी के दौरे पर चीन की विशेष निगाहें हैं। हांलांकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और मोदी की सकारात्मक वार्ता के बाद आशंकाएं कम होंगी। ऐतिहासिक सांस्कृतिक निकटता होने के कारण भी उन्हें करीब आने में सुविधा होगी। भारत को अपने इस पड़ोसी में रणनीतिक साझीदार तो ढूंढ़ने ही होंगे उसके साथ वहां लोकतांत्रिक आंदोलन को मजबूती देनी होगी, क्योंकि भारत की विशिष्टता और आकर्षण उसके लोकतंत्र में है और यही हमें चीन से अलग करता है।
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