भारतीय संविधान के भाग तीन में वर्णित मूल अधिकारों को इंग्लैण्ड के मेग्नाकार्टा, अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स तथा फ्रांस के मानव अधिकार घोषणा पत्र की संज्ञा दी जाती है। गोलकनाथ बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में उच्च्तम न्यायालय ने इन अधिकारों को व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक माना है। मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में भी उक्त मत की पुष्टि करते हुए इन मूल अधिकारों में व्यक्ति के सम्मान के संरक्षण और व्यक्तित्व के विकास की परिकल्पना की है। इसी मामले में न्यायमूर्ति पी० एन० भगवती ने कहा है कि इन मूल अधिकारों का उद्भम स्वतंत्रता का संघर्ष है। संविधान में इन्हें स्थान देने के पीछे मुख्य उद्देश्य भारत में स्वाधीनता का वट वृक्ष विकसित करना रहा है। देश, काल और परिस्थतियों के अनुसार इन मूल अधिकारों की परिभाषायें बदलती रही हैं और प्रवर्तन के नये-नये उपाय निकलते रहे हैं। ए० के० गोपालन बनाम स्टेट ऑफ मद्रास के मामले में इनकी विधानमंडलों द्वारा अतिक्रमण से सुरक्षा की गई तो केशवनन्द भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल के मामले में इनकों संविधान का मूल ढांचा मानते हुए नष्ट होने से बचा लिया गया।
धीरे-धीरे ये मूल अधिकार मानव अधिकार के रूप में प्रख्यात होने लगे। हमारे न्यायालयों ने भी इन मूल अधिकारों को मानव अधिकारों के दायरे में ला दिया। जब मानवीय मूल्यों का ह्यास एवं मानव अधिकारों का अतिलंघन होने लगा तो न्यायालयों ने नई-नई व्यवस्थायें देकर इन्हें पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। जेलों में कैदियों के प्रति किये जाने वाले अमानवीय एवं क्रूर व्यवहार पर प्रहार करते हुए सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने मानव अधिकारों को विधिशास्त्र एवं संविधान का अभिन्न अंग बताते हुए इन्हें संरक्षण प्रदान किया। प्रेम शंकर बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में तो यहां तक कह दिया गया कि मानव अधिकार संबंधी उपबंधों का निर्वचन करते समय संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकार घोषणा पत्र में निहित मूल सिद्धान्तों को ध्यान रखना चाहिए जो जेल, जेलकर्मियों और बंदियों में सुधार का आव्हान करता है। सभ्य समाज में मानव अधिकारों का मूल्य इतना बढ़ता चला गया कि इनके संरक्षण के लिए संसद द्वारा मानवाधिकार संरक्षण अधिनिमय, 1993 ही पारित कर दिया गया। यह अधिनियम मानव अधिकारों के संरक्षण की दिशा में मील का पत्थर है।
अब तो मानवाधिकारों का दयरा इतना बढ़ गया है कि उच्चतम न्यायालय में मनोहरलाल बनाम दिनेश आनन्द के मामले में यहां तक कह दिया है कि समाज की सुरक्षा के लिए अपराधियों को अभियोजित करना एक सामाजिक आवश्यकता है। इसके लिए अधिकारिता की अवधारणा (Concept of Locus Standi) अर्थहीन है। ऐसे मामलों में यह अवधारणा लागू नहीं होती।
मानवाधिकार को दृष्टिगत रखते हुए ही सुचित्रा श्रीवास्तव बनाम चण्डीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि –
“A woman’s right to privacy, dignity and bodily integrity should be respected.”
अर्थात् प्रत्येक महिला के एकान्तता, गरिमा एवं शरीरिक सौष्ठक के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए ।
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