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Wednesday, 7 March 2018

लेख क्रमांक :- 2 (Word Count - 373)


सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के दंगों में ध्वस्त हुए धार्मिक स्थलों के पुनर्निर्माण के लिए लिए सरकारी सहयोग को खारिज करके उचित ही किया है। ऐसा आदेश गुजरात हाई कोर्ट ने दिया था कि गोधरा घटना के बाद के दंगों में जो पांच सौ आराधना स्थल नष्ट हुए हैं उनकी सरकार मरम्मत कराए। इस आदेश के विरुद्ध गुजरात सरकार की याचिका को स्वीकार करके सुप्रीम कोर्ट ने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान का संदेश देना चाहा है। अदालत की दलील है कि संविधान का अनुच्छेद 27 धार्मिक स्थलों के रखरखाव के लिए जनता पर कर लगाने की इजाजत नहीं देता। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की इस दलील को स्वीकार कर लिया है कि वह आवासीय और वाणिज्यिक स्थलों के नुकसान के लिए सभी को पचास हजार रुपए की अनुग्रह राशि दे रही है लेकिन, वह धार्मिक मामलों में ऐसी मदद नहीं कर सकती। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की दो सदस्यीय पीठ ने व्यक्तियों को दी जाने वाली अनुग्रह राशि को इस आधार पर सही माना है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकार के तहत यह सहयोग जायज है। यह फैसला भारतीय इतिहास की उस घटना की याद दिलाता है, जिसमें उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सोमनाथ के टूटे हुए मंदिर का सरकारी खर्च से जीर्णोद्धार करवाने से इनकार कर दिया था। उनकी साफ दलील थी कि सरकार धर्मनिरपेक्ष है और उसका काम मंदिर- मस्जिद बनवाना नहीं है। राज्य के इसी धर्मनिरपेक्ष चरित्र का दबाव उन नेताओं पर भी पड़ना चाहिए, जो जिम्मेदार पदों पर बैठने के बाद सरकारी आवासों में पूजा और गंगा जल से सफाई का धार्मिक अभियान चलवाते हैं। इससे राज्य का धर्मिनिरपेक्ष चरित्र खंडित होता है। इसी आधार पर एक बार डॉ. लोहिया ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा बनारस में ब्राह्मणों के चरण धोने की कड़ी निंदा की थी। राज्य को अपने चरित्र में धर्मनिरपेक्षता रखनी होगी और वह तभी कायम होगी जब उसके शीर्ष पदों पर बैठे लोग अपने व्यवहार में विचलन न करें। समाज के विभिन्न संप्रदायों और संगठनों का यह दायित्व बनता है कि वे दूसरे समुदाय की आहत भावनाओं पर मरहम लगाने में सहयोग दें। अगर हिंदुओं के पूजा स्थल टूटे हैं तो मुस्लिम सहयोग दें और अगर मुस्लिमों के धार्मिक स्थल टूटे हैं तो हिंदू सहयोग करें।

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