एकांत परिरोध – जब कभी कोई व्यक्ति ऐसे अपराध के लिये दोषसिद्ध ठहराया जाता है जिसके लिये न्यायालय को इस संहिता के अधीन उसे कठिन कारावास से दंडादिष्ट किया गया है, किसी भाग या भागों के लिये, जो कुल मिलाकर तीन मास से अधिक के न होंगे निम्न मापमान के अनुसार एकांत परिरोध में रख जायेगा, अर्थात –
यदि कारावास की अवधि छह मास से अधिक न हो तो एक मास से अनधिक समय;
यदि कारावास की अवधि छह मास से अधिक हो और एक वर्ष से अधिक न हो तो दो मास से अनधिक समय,
यदि कारावास की अवधि एक वर्ष से अधिक हो तो तीन मास से अनधिक समय;
एकांत परिरोध की अवधि – एकांत परिरोध के दंडादेश के निष्पादन में ऐसा परिरोध किसी दशा में भी एक बार में चौदह दिन से अधिक न होगा, साथ ही ऐसे एकांत परिरोध की कालावधियों की बीच में उन कालावधियों से अन्यून अंतराल होंगे दिया गया कारावास तीन मास से अधिक हो, तब दिये गये सम्पूर्ण कारावास के किसी एक मास में एकांत परिरोध सात दिन से अधिक न होगा, साथ ही एकांत परिरोध की कालावधियों के बीच में उन्हीं कालावधियों के अन्यून अंतराल होंगे ।
पूर्व दोषसिद्धि के पश्चात अध्याय 12 और अध्याय 17 के अधीन कतिपय अपराधों के लिये वर्धित दंड – जो कोई व्यक्ति :
(क) भारत में के किसी न्यायालय द्वारा इस संहिता के अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन तीन वर्ष या उसके अधिक की अवधि के लिये दोनों में से किसी भांति के कारावास से दंडनीय अपराध के लिये ।
(ख) दोषसिद्धि ठहराये जाने के पश्चात उन दोनों अध्यायों में से किसी अध्याय के अधीन उतनी ही अवधि के लिये वैसे ही कारावास से दंडनीय किसी अपराध का दोषी हो, तो वह हर ऐसे पश्चातवर्ती अपराध के लिये आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेंगी, दंडनीय होगा ।
विधि द्वारा आबद्ध या तथ्य की भूल के कारण अपने आपको विधि द्वारा आबद्ध होने का विश्वास करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य – कोई बात अपराध नहीं है, जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाये जो उसे करने के लिये विधि द्वारा आबद्ध हो या जो तथ्य की भूल के कारण न कि विधि की भूल के कारण, सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि वह उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध है ।
न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य – कोई बात, तो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाये या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश से प्रवृत्त रहते की जाये, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परंतु यह तब जबकि वह कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय को वैसी अधिकारिता थी ।
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