यदि आप इस ब्‍लोग में हैं तब तो आप हिंदी टाइपिंग और डिक्‍टेशन से परिचित ही होंगे। यह ब्‍लोग उन सभी अभ्यार्थियों की सहायता के लिए प्रारंभ किया गया है जो हिंदी टाइपिंग के क्षेत्र में अपना भविष्‍य बनाना चाहते हैं। आप अपनी हिंदी टाइपिंग को अधिक शटीक बनाने के‍ लिए हिंंदी के नोट्स और डिक्‍टेशन की सहायता ले सकते हैं।
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Friday, 30 March 2018

Typing Dictation No :- 4 (45WPM)




मानवाधिकारों की अवधारणा तथा इसका संरक्षण करने वाली संस्‍थाओं को समझने के बाद अब हम लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका, उसके कार्य और जवाबदेही को जानने की दिशा में आगे बढ़ेंगे । पुलिस द्वारा जनता के साथ बर्ताव में मानवाधिकारों का पालन और उनके प्रति सम्‍मान, जनोन्‍मुखी पुलिस की ओर प्रवर्तन की दिशा में एक सकारात्‍मक कदम है । आप इस इकाई में कानून के शासन के सिद्धांत के बारे में पढ़ेंगे, जो पुलिस द्वारा शक्ति के मनमाने प्रयोग पर अंकुश रखता है तथा पुलिस को नागरिकों की सुरक्षा तथा बचाव का अधिकार देता है । इस इकाई में पाठक उस आचार संहिता से परिचित होंगे, जो पुलिस के रोजमर्रा के क्रिया-कलापों का संचालन करती है, और मानवाधिकार उल्‍लंघन को जन्‍म देने वाली शक्ति के अतिशय प्रयोग पर लगाम भी रखती है । यह ईकाई पुलिस सुधार के लिए उठाए गए विभिन्‍न कदमों से भी परिचित करवाएगी । 

इस इकाई के अध्‍ययन के बाद आप लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका, कार्य और जवाबदेही को परिभाषित कर सकेंगे । पुलिस प्रक्रिया में कानून के सिद्धांत तथा मानवाधिकारों के प्रति सम्‍मान को समझ सकेंगे । उस आचार संहिता की रूप-रेखा को जान पाएँगे जो पुलिस के रोजमर्रा के कार्य-कलापों का संचालन करती है । पुलिस के लिए मानवाधिकारों के मानकों तथा पुलिस सुधार हेतु उठाए गए कदमों का मूल्‍यांकन कर सकेंगे । पुलिस द्वारा मानवाधिकारों के उल्‍लंघन को इंगित कर सकेंगे और लोगों के अधिकारों की सुरक्षा हेतु रोकथाम के उपायों को आत्‍मसात कर सकेंगे । 

पुलिस एक सार्वजनिक सेवा है – पुलिस नागरिकों के लिए संपर्क का पहला प्रत्‍यक्ष बिंदु है । यह इकलौती एजेंसी है जिसके पास लोगों के साथ संपर्क का सबसे व्‍यापक संभाव्‍य अवसर है । पुलिस कार्य प्राय: निरोधात्‍मक तथा नियामक प्रकृति के होते हैं, इस कारण एक नागरिक के मन में पुलिस की छवि, जीवन, स्‍वतंत्रता और आजादी में दखल देने वाले की हो जाती है । अपराध को रोकना और व्‍यवस्‍था बनाए रखना पुलिस का कर्तव्‍य है । जब भी कानून का उल्‍लंघन होता है तो पुलिस का यह कर्तव्‍य है कि वह उल्‍लंघन के आरोपी को पकडे़ तथा विधि द्वारा स्‍थापित प्रक्रिया से न्‍याय के लिए उसे अदालत में पेश करे । 

पुलिस अनिवार्यत: एक सार्वजनिक सेवा है और लोकतंत्र में जनता के प्रति जवाबदेही होती है । यह ऐसी सार्वजनिक संस्‍था है जो सरकार की किसी भी अन्‍य ऐजेंसी की तुलना में जनसंख्‍या के बड़े हिस्‍से को उनके रोजमर्रा के जीवन में व्‍यावक रूप से प्रभाव डालती है । वास्‍तव में पुलिस जन आलोचना का सर्वाधिक निशाना बनने वाली संख्‍या भी है इसलिए पुलिस द्वारा मानवाधिकारों का उल्‍लंघन एवं दुर्व्‍यवहार तुरंत ही मीडिया तथा मानवाधिकार संस्‍थाओं की आलोचनात्‍मक निगाह में आ जाता है । एक सार्वजनिक संस्‍था के रूप में पुलिस का गठन एक स‍शक्‍तीकरण कानून द्वारा होता है । इसलिए पुलिस को जनता के प्रति अधिक उत्‍तरदायी होना चाहिए ।

(Word Count - 447)

Monday, 26 March 2018

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (भाग - 6)


राष्‍ट्रपति के अध्‍यादेश के पश्‍चात् लोक सभा में पुन: मानवाधिकार संरक्षण विधेयक, 1993 लाया गया । अन्‍तत: यह विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया । इस प्रकार मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 पारित हुआ । इस अधिनियम के पारित हो जाने पर राष्‍ट्रपति का अध्‍यादेश निरस्त हो गया । 

यहाँ संक्षेप में संसद की विधयी प्रक्रिया का उल्‍लेख करना भी समीचीन होगा । संविधान के अनुच्‍छेद 107, 108 एवं 111 में सामान्‍य विधि निर्माण की प्रक्रिया बताई गई है । इनका मूल पाठ इस प्रकार है – 

अनुच्‍छेद 107 : विधेयकों के पुन: स्‍थापना और पारित किये जाने के संबंध में उपबंध – 

(1) धन विधेयकों और अन्‍य वित्‍त विधेयकों के संबंध में अनुच्‍छेद 109 और अनुच्‍छेद 117 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई विधेयक संसद के किसी भी सदन में आरंभ हो सकेगा । 

(2) अनुच्‍छेद 108 और अनुच्‍छेद 109 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई विधेयक संसद के सदनों द्वारा तब तक पारित किया गया नहीं समझा जाएगा जब तक संशोधन के बिना या केवल ऐसे संशोधनों सहित, जिन पर दोनों सदन सहमत हो गए हैं, उस पर दोनों सदन सहमत नहीं हो जाते हैं । 

(3) संसद में लंबित विधेयक सदनों के सत्रावसान के कारण व्‍यपगत नहीं होगा । 

(4) राज्‍य सभा में लंबित विधेयक, जिसकों लोक सभा ने पारित नहीं किया है, लोक सभा में विघटन पर व्‍यपगत नहीं होगा । 

(5) कोई विधेयक, जो लोक सभा में लंबित है या जो लोक सभा द्वारा पारित कर दिया गया है और राज्‍य सभा में लंबित है, अनुच्‍छेद 108 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, लोक सभा के विघटन पर व्‍यपगत हो जाएगा । 

अनुच्‍देद 108 : कुछ दशाओं में दोनों सदनों की संयुक्‍त बैठक – 

(1) दूसरे सदन द्वारा विधेयक अस्‍वीकार कर दिया गया है; या 

(2) विधेयक में किए जाने वाले संशोधनों के बारे में दोनों सदन अंतिम रूप से असहमत हो गए हैं; या 

(3) दूसरे सदन को विधेयक प्राप्‍त होने की तारीख से उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना छह मास से अधिक बीत गए हैं; 

तो उस दशा के सिवाय जिसमें लोक सभा का विघटन होने के कारण विधेयक व्‍यपगत हो गया है, राष्‍ट्रपति विधेयक पर विचार-विमर्श करने और मत देने के प्रयोजन के लिए सदनों को संयुक्‍त बैठक में अधिवेशित होने के लिए आहूत करने के अपने आशय की सूचना, यदि बैठक में हैं तो संदेश द्वारा या यदि वे बैठक में नहीं है तो लोक अधिसूचना द्वारा देगा: 

परंतु इस खंड की कोई बात धन विधेयक को लागू नहीं होगी । 

छह मास की ऐसी अवधि की गणना करने में, जो खंड (1) में निर्दिष्‍ट है, किसी ऐसी अवधि को हिसाब में नहीं लिया जाएगा जिसमें उक्‍त खंड के उपखंड (ग) में निर्दिष्‍ट सदन सत्रावसित या निरंतर चार से अधिक दिनों के लिए स्‍थगित कर दिया जाता है।

(Word Count - 448)

लेख क्रमांक :- 17 (Word Count - 392)

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को फटकारने के बावजूद आधार कार्ड पर संदेह की राजनीति गहराती जा रही है। भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने आधार को तबाही वाली योजना बताते हुए भारत के विशिष्ट पहचान प्राधिकरण को ही खत्म करने की सलाह देकर इस योजना की कमजोरियों की ओर व्यापक रूप से ध्यान आकर्षित किया है। स्वामी ने याद दिलाया है कि 2014 के चुनाव में जब मौजूदा केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार आधार योजना के जनक नंदन नीलेकणी के विरुद्ध बेंगलुरू दक्षिण से चुनाव लड़ रहे थे, तब वहां पर आधार कार्ड एक मुद्‌दा बना था। स्वामी ने चार भाषणों के माध्यम से नीलेकणी को रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया था और अनंत कुमार विजयी हुए थे। इसके बावजूद अगर एनडीए सरकार ने आधार अधिनियम पारित करके इसे समाज कल्याण की योजनाओं से ही नहीं लोगों के बैंक खातों और फोन नंबरों से जोड़ना अनिवार्य कर दिया है तो उसकी दलील भ्रष्टाचार रोकने और कालेधन को खत्म करने की है। यूपीए सरकार की यह योजना अगर एनडीए सरकार ने अपनाई है तो इसमें कोई सार जरूर है। दूसरी ओर अगर इस योजना पर मानवाधिकार संगठनों और जागरूक नागरिकों को संदेह है और आम जनता को कई प्रकार की परेशानियां हो रही हैं तो सरकार को उस पर गौर करना ही होगा। हाल में झारखंड में भूख से होने वाली मौतों का कारण भी आधार कार्ड से लिंक न बन पाने में देखा जा रहा है। उस परिवार का राशन आधार के कारण बंद हो गया। आधार के साथ दूसरी बड़ी दिक्कत बायोमेट्रिक्स के निशान के बदल जाने और कई बार पहचान न हो पाने की भी है पर उससे भी गंभीर समस्या आंकड़ों और पहचान के चोरी होने और सरकार की निगरानी के मोर्चे पर है। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने अपने सर्वाधिक महत्वपूर्ण फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना है। ऐसे में आधार अनिवार्य बनाए जाने पर और सवाल उठने लगे हैं। स्वामी ने कहा भी है कि सरकार को देर-सबेर इसे खत्म ही करना होगा। हालांकि, आधार के विरुद्ध कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं है और उसका विरोध ममता बनर्जी जैसी इक्का-दुक्का राजनेता ही कर रही हैं, फिर भी नागरिक संगठनों और स्वतंत्र नागरिकों ने बहुत सारी याचिकाओं के माध्यम से इसे रद्‌द किए जाने की मांग की है। देखना है संदेह में घिरते इस लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट कैसे यकीन पैदा करता है।

Saturday, 24 March 2018

सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (भाग - 4)


जहाँ न्‍यायालयों की अधिकारिता की स्‍थानी सीमाएं अनिश्चित है वहाँ वाद के संस्थित किए जाने का स्‍थान – जहाँ यह अभिकथित किया जाता है कि यह अनिश्चित है कि कोई स्‍थावर संपत्ति दो या अधिक न्‍यायालयों में से किसी न्‍यायालय की अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर स्थित है वहाँ उन न्‍यायालयों में से कोई भी एक न्‍यायालय, यदि उसका समाधान हो जाता है कि अभिकथित अनिश्चिता के लिए आधार है, उस भाव का कथन अभिलिखित कर सकेगा और तब उस संपत्ति के संबंधित किसी भी वाद को ग्रहण करने और उसका निपटारा करने के लिए आगे कार्यवाही कर सकेगा, और उस वाद में उसकी डिक्री का वही प्रभाव होगा मानो वह संपत्ति उसकी अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर स्थित हो : 

परंतु यह तब जबकि वह वादा ऐसा है जिसके संबंध में न्‍यायालय उस वाद की प्रकृति और मूल्‍य की दृष्टि के अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए सक्षम है । 

जहाँ उपधारा 1 के अधीन अभिलिखित नहीं किया गया है और किसी अपील या पुनरीक्षण न्‍यायालय के सामने या आक्षेप किया जाता है कि ऐसी संपत्ति के संबंधित वाद में डिक्री या आदेश ऐसे न्‍यायालय द्वारा किया गया था जिसकी वहाँ अधिकारिता नहीं थी जहाँ संपत्ति स्थित है वही अपील या पुनरीक्षण न्‍यायालय उस आक्षेप को तब तक अनुज्ञात नहीं करेगा जब तक कि उसकी राय न हो कि वाद के संस्थित किया जाने के समय उसके संबंध में अधिकारिता रखने वाले न्‍यायालय के बारे में अनिश्चितता के लिए कोई युक्तियुक्‍त आधार नहीं थ उसके परिणामस्‍वरूप न्‍याय की निष्‍फलता हुई है । 


शरीर या जंगम संपत्ति के प्रति किए गए दोषों के लिए प्रतिकर के लिए वाद – जहाँ वाद की शरीर या जंगम संपत्ति के प्रति किए गए दोष के लिए प्रतिकर के लिए है वहाँ यदि दोष एक न्‍यायालय की अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर किया गया था और प्रतिवादी किसी अन्‍य न्‍यायालय की अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्‍वयं काम करता है तो वाद वादी के विकल्‍प पर उक्‍त न्‍यायालयों में से किसी भी न्‍यायालय में संस्थित किया जा सकेगा । 



अन्‍य वाद वहाँ संस्थित किए जा सकेंगे जहाँ प्रतिवादी निवास करते हैं या वाद-हेतुक पैदा होता है – पूर्वोक्‍त परिसीमाओं के अधीन रहते हुए, हर वाद ऐसे न्‍यायालय में संस्थित किया जाएगा जिसकी अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर : 


(क) प्रतिवादी या जहाँ एक से अधिक प्रतिवादी है वहाँ प्रतिवादियों में से हर एक वाद के प्रारंभ के समय वास्‍तव में और स्‍वेच्‍छा से निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्‍वयं काम करता है, अथवा; 

(ख) जहाँ एक से अधिक प्रतिवादी है वहाँ प्रतिवादियों में से कोई भी प्रतिवादी वाद के प्रारंभ के समय वास्‍तव में और स्‍वेच्‍छा से निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्‍वयं काम करता है, परंतु यह तब जबकि ऐसे अवस्‍था में या तो न्‍यायालय की इजाजत दे दी गई है या जो प्रतिवादी पूर्वोक्‍त रूप में निवास नहीं करने या कारबार नहीं करते या अभिलाभ के लिए स्‍वयं काम नहीं करते, वे ऐसे संस्थित किए जाने के लिए उपगत हो गए है, अथवा; 

(ग) वाद-हेतुक पूर्णत: या भागत: पैदा होता है ।

(Word Count - 521)

Thursday, 22 March 2018

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (भाग - 5)


मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम : 

अब हम मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के उपबंधों पर विचार करते हैं । 

अधिनियम का नाम, विस्‍तार एवं प्रवर्तन : 

इस अधिनियम का नाम ‘मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993’ के नाम से सम्‍बोधित किया गया है । 

इसका विस्‍तार सम्‍पूर्ण भारत पर है । परंतु जहाँ तक जम्‍मू और कश्‍मीर का प्रश्‍न है, यह अधिनियम वहां संविधान की सातवी अनुसूची की सूची 1 अथवा सूची 3 में वर्णि विषयों से संबंध में ही लागू होगा । 

इस अधिनियम को 28 सितम्‍बर, 1993 से लागू किया गया है । (धारा 1) 28 सितम्‍बर, 1993 वह तिथि है जिस दिन राष्‍ट्रपति द्वारा मानवाधिकार संरक्षण अध्‍यादेश जारी किया गया था । 

यह अधिनियम सन् 1994 का अधिनियम संख्‍या 10 है तथा उसे राष्‍ट्रपति की अनुमति दिनांक 8 जनवरी, 1994 को प्राप्‍त हुई । 

अधिनियम के आरम्‍भ में ही इसका उद्देश्‍य बताया गया है । इस अधिनियम के मुख्‍यतया निम्नांकित उद्देश्‍य हैं – 

(1) मानव अधिकारों का बेहतर संरक्षण; 

(2) राष्‍ट्रीय मानवाधिकार संरक्षण आयोग का गठन; एवं 

(3) राज्‍यों में राज्‍य मानवाधिकार संरक्षण आयोगों की स्‍थापना । 

इन्‍हीं उद्देश्‍यों को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए भारतीय गणराज्‍य के 44 वें वर्ष में संसद द्वारा यह अधिनियम पारित किया गया । 

सन् 1993 में ही राष्‍ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्‍छेद 123 के अंतर्गत मानवाधिकार संरक्षण अध्‍यादेश जारी किया गया जिसका मुख्‍य उद्देश्‍य राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा राज्‍यों में राज्‍य मानवाधिकार आयोग का गठन करना था । 

यहाँ यह उल्‍लेखनीय है कि जब संसद का अधिवेशन नहीं चल रहा हो और परिस्थ्‍िातियां ऐसी हों कि उनसे निपटने के लिए कानून की आवश्‍यकता हो; 

तब राष्‍ट्रपति संविधान के अनुच्‍छेद 123 के अंतर्गत अध्‍यादेश जारी कर सकता है और उस अध्‍यादेश का वही प्रभाव होता है जो किसी अधिनियम का होता है । यहां संविधान के अनुच्‍छेद 123 का मूल पाठ निम्‍नलिखित है : 

संसद के विश्रांतिकाल में अध्‍यादेश प्रख्‍यापित करने की राष्‍ट्रपति की शक्ति –
(1) उस समय को छोड़कर जब संसद के दोनों सदन सत्र में है, यदि किसी समय राष्‍ट्रति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितयां विद्यमान है जिनके कारण तुरंत कार्रवाई करना उसके लिए आवश्‍यक हो गया है तो वह ऐसे अध्‍यादेश प्रख्‍यापित कर सकेगा जो उसे परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों । 

(2) इस अनुच्‍छेद के अधीन प्रख्‍यापित अध्‍यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो संसद के अधिनियम का होता है, किंतु प्रत्‍येक ऐसा अध्‍यादेश – 
          (2.1) संसद के दोनों सदनों में समक्ष रखा जाएगा और संसद के पुन: समवेत होने से छह सप्‍ताह की समाप्ति पर या यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले दोनों सदन उसके अनुमोदन का संकल्‍प पारित कर देते हैं तो, इनमें से दूसरे संकल्‍प के पारित होने पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा; और 
          (2.2) राष्‍ट्रपति द्वारा किसी भी समय वापस लिया जा सकेगा । 

(3) यदि और जहाँ तक इस अनुच्‍छेद के अधीन अध्‍यादेश कोई ऐसा उपबंध करता है जिसे अधिनियमत करने के लिए संसद इस संविधान के अधीन सक्षम नहीं है तो और वहां तक वह अध्‍यादेश शून्‍य होगा ।

(Word Count - 476)

भारतीय दंड संहिता 1860 (भाग - 5)


एकांत परिरोध – जब कभी कोई व्‍यक्ति ऐसे अपराध के लिये दोषसिद्ध ठहराया जाता है जिसके लिये न्‍यायालय को इस संहिता के अधीन उसे कठिन कारावास से दंडादिष्‍ट किया गया है, किसी भाग या भागों के लिये, जो कुल मिलाकर तीन मास से अधिक के न होंगे निम्‍न मापमान के अनुसार एकांत परिरोध में रख जायेगा, अर्थात –

यदि कारावास की अवधि छह मास से अधिक न हो तो एक मास से अनधिक समय;

यदि कारावास की अवधि छह मास से अधिक हो और एक वर्ष से अधिक न हो तो दो मास से अनधिक समय,

यदि कारावास की अवधि एक वर्ष से अधिक हो तो तीन मास से अनधिक समय;

एकांत परिरोध की अवधि – एकांत परिरोध के दंडादेश के निष्‍पादन में ऐसा परिरोध किसी दशा में भी एक बार में चौदह दिन से अधिक न होगा, साथ ही ऐसे एकांत परिरोध की कालावधियों की बीच में उन कालावधियों से अन्‍यून अंतराल होंगे दिया गया कारावास तीन मास से अधिक हो, तब दिये गये सम्‍पूर्ण कारावास के किसी एक मास में एकांत परिरोध सात दिन से अधिक न होगा, साथ ही एकांत परिरोध की कालावधियों के बीच में उन्‍हीं कालावधियों के अन्‍यून अंतराल होंगे ।

पूर्व दोषसिद्धि के पश्‍चात अध्‍याय 12 और अध्‍याय 17 के अधीन कतिपय अपराधों के लिये वर्धित दंड – जो कोई व्‍यक्ति :

(क) भारत में के किसी न्‍यायालय द्वारा इस संहिता के अध्‍याय 12 या अध्‍याय 17 के अधीन तीन वर्ष या उसके अधिक की अवधि के लिये दोनों में से किसी भांति के कारावास से दंडनीय अपराध के लिये ।

(ख) दोषसिद्धि ठहराये जाने के पश्‍चात उन दोनों अध्‍यायों में से किसी अध्‍याय के अधीन उतनी ही अवधि के लिये वैसे ही कारावास से दंडनीय किसी अपराध का दोषी हो, तो वह हर ऐसे पश्‍चातवर्ती अपराध के लिये आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेंगी, दंडनीय होगा ।

विधि द्वारा आबद्ध या तथ्‍य की भूल के कारण अपने आपको विधि द्वारा आबद्ध होने का विश्‍वास करने वाले व्‍यक्ति द्वारा किया गया कार्य – कोई बात अपराध नहीं है, जो किसी ऐसे व्‍यक्ति द्वारा की जाये जो उसे करने के लिये विधि द्वारा आबद्ध हो या जो तथ्‍य की भूल के कारण न कि विधि की भूल के कारण, सद्भावपूर्वक विश्‍वास करता हो कि वह उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध है ।

न्‍यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य – कोई बात, तो न्‍यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाये या उसके द्वारा अधिदिष्‍ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश से प्रवृत्‍त रहते की जाये, अपराध नहीं है, चाहे उस न्‍यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परंतु यह तब जबकि वह कार्य करने वाला व्‍यक्ति सद्भावपूर्वक विश्‍वास करता हो कि उस न्‍यायालय को वैसी अधिकारिता थी ।

(Word Count - 461)

Wednesday, 21 March 2018

Typing Dictation No. :- 3 (45WPM)




राज्‍य सरकार, इस अधिनियम द्वारा ग्राम न्‍यायालय को प्रदत्‍त अधिकारिता और शक्तियों का प्रयोग करने के प्रयोजन के लिए, उच्‍च न्‍यायालय से परामर्श करने के पश्‍चात, अधिसूचना द्वारा, जिले में मध्‍यवर्ती स्‍तर पर प्रत्‍येक पंचायत या मध्‍यवर्ती स्‍तर पर निकटवर्ती पंचायतों के समूह के लिए या जहां किसी राज्‍य में मध्‍यवर्ती स्‍तर पर कोई पंचायत नहीं है वहां निकटवर्ती ग्राम पंचायतों के समूह के लिए एक या अधिक ग्राम न्‍यायालय स्‍थापित कर सकेगी । राज्‍य सरकार, उच्‍च न्‍यायालय के परामर्श के पश्‍चात, अधिसूचना द्वारा, ऐसे क्षेत्र की स्‍थानीय सीमाएं विनिर्दिष्‍ट करेगी, जिस पर ग्राम न्‍यायालय की अधिकारिता विस्‍तारित की जाएगी और किसी भी समय, ऐसी सीमाओं को बढ़ा सकेगी, कम कर सकेगी या परिवर्तित कर सकेगी । उपधारा 1 के अधीन स्‍थापित ग्राम न्‍यायालय तत्‍समय प्रवृत्‍त किसी अन्‍य विधि के अधीन स्‍थापित न्‍यायालयों के अतिरिक्‍त होंगे । प्रत्‍येक ग्राम न्‍यायालय का मुख्‍यालय उस मध्‍यवर्ती ग्राम पंचायत के मुख्‍यालय पर जिसमें ग्राम न्‍यायालय स्‍थापित है या ऐसे अन्‍य स्‍थान पर अवस्थित होगा, जो राज्‍य सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाए । राज्‍य सरकार, उच्‍च न्‍यायालय के परामर्श से, प्रत्‍येक ग्राम न्‍यायालय के लिए एक न्‍यायाधिकारी की नियुक्ति करेगी ।

कोई व्‍यक्ति, न्‍यायाधिकारी के रूप में नियुक्‍त किए जाने के लिए तभी अर्हित होगा, जब वह प्रथम वर्ग न्‍यायिक मजिस्‍ट्रेट के रूप में नियुक्‍त किए जाने के लिए पात्र हो । न्‍यायाधिकारी की नियुक्ति करते समय, अनुसूचित जातियों, अनुसचित जनजातियों, स्त्रियों तथा ऐसे अन्‍य वर्गों या समुदायों के सदस्‍यों को प्रतिनिधित्‍व दिया जाएगा, जो राज्‍य सरकार द्वारा, समय-समय पर, अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्‍ट किए जाएं । न्‍यायाधिकारी को संदेय वेतन और भत्‍ते तथा उसकी सेवा के अन्‍य निबंध और शर्तें वे होंगी, जो प्रथम वर्ग न्‍यायिक मजिस्‍ट्रेट को लागू हों ।

न्‍यायाधिकारी ग्राम न्‍यायालय की उन कार्यवाहियों में पीठासीन नहीं होगा जिनमें उसका कोई हित है या वह विवाद की विषय-वस्‍तु के अन्‍यथा अंतर्विलित है या उसका ऐसी कार्यवाहियों के किसी पक्षकार से संबंध हैं और ऐसे मामले में न्‍यायाधिकारी मामले को, किसी अन्‍य न्‍यायाधिकारी को अंतरित किए जाने के लिए, यथास्थिति, जिला न्‍यायालय या सेशन न्‍यायालय को भेजेगा । 

न्‍यायाधिकारी अपनी अधिकारिता के अंतर्गत आने वाले ग्रामों का आवधिक रूप से दौरा करेगा और ऐसे किसी स्‍थान पर विचारण या कार्यवाहियाँ करेगा, जिसे वह उस स्‍थान के निकट समझता है जहाँ पक्षकार सामान्‍यता निवास करते हैं या जहाँ संपूर्ण वाद हेतुक या उसका कोई भाग उद्भूत हुआ है । परंतु जहाँ ग्राम न्‍यायालय अपने मुख्‍यालय से बाहर चल न्‍यायालय लगाने का विनिश्‍चय करता है वहाँ वह उस तारीख और स्‍थान के बारे में, जहाँ वह चल न्‍यायालय लगाने का प्रस्‍ताव करता है, व्‍यापक प्रचार करेगा ।

राज्‍य सरकार, ग्राम न्‍यायालय को सभी सुविधाएं प्रदान करेगी जिनके अंतर्गत उसके मुख्‍यालय के बाहर विचारण या कार्यवाहियाँ करते समय न्‍यायाधिकारी द्वारा चल न्‍यायालय लागाने के लिए वाहनों की व्‍यवस्‍था भी है ।

(Word Count - 444)

Monday, 19 March 2018

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 (भाग - 5)


शासकीय गुप्‍त बात अधिनियम, 1923 (1923 का 19) में, उपधारा (1) के अनुसार अनुज्ञेय किसी छूट में किसी बात के होते हुए भी, किसी लोक प्राधिकारी को सूचना तक पहुंच अनुज्ञात की जा सकेगी, यदि सूचना के प्रकटन में लोक हित, संरक्षिति हितों के नुकसान से अधिक है । 

उपधारा (1) के खंड (क), खंड (ग) और खंड (झ) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी ऐसी घटना, वृतांत या विषय से संबंधित कोई सूचना, जो उस तारीख से, जिसकी धारा 16 के अधीन कोई अनुरोध किया जाता है, बीस वर्ष पूर्व घटित हुई थी या हुआ था, उस धारा के अधीन अनुरोध करने वाले किसी व्‍यक्ति को उपलब्‍ध कराई जाएगी । 

परंतु यह किस जहाँ उस तारीख के बारे में, जिससे बीस वर्ष की उक्‍त अवधि को संगणित किया जाता है, कोई प्रश्‍न उद्भूत होता है, वहां इस अधिनियम में उसके लिए उपबंधित प्रायिक अपीलों के अधीन रहते हुए केंद्रीय सरकार का विनिश्‍चय अंतिम होगा । 

कतिपय मामलों में पहुंच के लिये अस्‍वीकृति के आधार – धारा 8 के उपबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, यथास्थिति, कोई केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या कोई राज्‍य लोक सूचना अधिकारी सूचना के किसी अनुरोध को वहां अस्‍वीकार कर सकेगा जहाँ पहुंच उपलब्‍ध कराने के लिये ऐसा अनुरोध राज्‍य से भिन्‍न किसी व्‍यक्ति के अस्तित्‍वयुक्‍त प्रतिलिप्‍याधिकार का उल्‍लंघन अन्‍तवर्लित करेगा । 

प्रथक्करणीयता – जहाँ सूचना तक पहुंच के अनुरोध को इस आधार पर अस्‍वीकार किया जाता है कि वह ऐसी सूचना के संबंध में है जो प्रकट किये जाने से छूट प्राप्‍त है वहां इस अधिनियम मे किसी बात के होते हुये भी, पहुंच अभिलेख के उस भाग तक उपलब्‍ध कराई जा सकेगी जिसमें कोई ऐसी सूचना अन्‍तर्विष्‍ट नहीं है, जो इस अधिनियम के अधीन प्रकट किये जाने छूट प्राप्‍त है और जो किसी ऐसे भाग से, जिसमें छूट प्राप्‍त सूचना अन्‍तर्विष्‍ट है, युक्तियुक्‍त रूप से पृथक् की जा सकती है । 

जहाँ उपधारा (1) के अधीन अभिलेख के किसी भाग तक पहुंच अनुदत्‍त की जा जाती है, वहाँ यथास्थिति, केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्‍य लोक सूचना अधिकारी निम्‍नलिखित सूचना देते हुये, आवेदक को एक सूचना देगा कि – 

(क) अनुरोध किये गये अभिलेख का केवल एक भाग ही, उस अभिलेख से उस सूचना को जो प्रकट के छूट प्राप्‍त है, प्रथक् करने के पश्‍चात, उपलब्‍ध कराया जा रहा है; 

(ख) विनिश्‍चय के लिये कारण, जिनके अंतर्गत तथ्‍य के किसी महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न पर उस सामग्री के प्रति, जिस पर वे निष्‍कर्ष भी है; 

(ग) विनिश्‍चय करने वाले व्‍यक्ति का नाम और पदनाम; 

(घ) उसके द्वारा संगणित फीस के ब्‍यौरे फीस की वह रकम जिसकी आवेदक से निक्षेप करने की घोंषणा की जाती है; और 

(ङ) सूचना के भाग को प्रकट न किये जाने के संबंध में विनिश्‍चय के पुनर्विलोकल के बारे में उसके अधिकार प्रभारित फीस की रकम या उपलब्‍ध कराया गया पहुंच का प्रारूप, जिसके अंतर्गत, यथास्थिति, धारा 19 की उपधारा (1) के अधीन विनिर्दिश्‍ट वरिष्‍ठ अधिकारी, या केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्‍य लोक सूचना अधिकारी की विशिष्टियाँ, समय-सीमा, प्रक्रिया और कोई अन्‍य पहुंच का प्ररूप भी है ।

Sunday, 18 March 2018

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 (भाग - 4)


जहाँ, इस अधिनियम के अधीन अभिलेख या उसके किसी भगा तक पहुंच अपेक्षित है और ऐसा व्‍यक्ति, जिसको पहुंच उपलब्‍ध कराई जानी है, संवेदनात्‍मक रूप से नि:शक्‍त है, वहां यथास्थिति, केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्‍य लोक सूचना अधिकारी के लिये ऐसी सहायता कराना भी सम्मिलित है, जो समुचित हो । 

जहाँ, सूचना तक पहुंच मुद्रित या किसी इलेक्‍ट्रानिक रूप विधान में उपलब्‍ध कराई जानी है, वहां आवेदक, उपधारा (6) के अधीन रहते हुए, ऐसी फीस का संदाय करेगा, जो विहित की जाए :

परंतु धारा 6 की उपधारा (1) और धारा 7 की उपधारा (1) और उपधारा (5) के अधीन विहित फसी युक्तियुक्‍त होगी और ऐसे व्‍यक्तियों से, जो गरीबी की रेखा के नीचे हैं, जैसा समुचित सरकार द्वारा अवधारित किया जाएं, कोई फीस प्रभारित नहीं की जाऐगी ।

उपधारा (5) में किसी बात के होते भी, जहाँ कोई लोक प्राधिकारी उपधारा (1) में विनिर्दिष्‍ट समय-सीमा का अनुपालन करने में असफल रहता है, वहां सूचना के लिये अनुरोध करने वाले व्‍यक्ति को प्रभार के बिना सूचना उपलब्‍ध कराई जाएगी ।

उपधारा (1) के अधीन कोई विनिश्‍चय करने से पूर्व, यथास्थिति, केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्‍य लोक सूचना अधिकारी धारा 11 के अधीन पर व्‍यक्ति द्वारा किए गए अभ्‍यावेदन को ध्‍यान में रखेगा ।

जहाँ, किसी अनुरोध को धारा (1) के अधीन अस्‍वीकृत किया गया है, वहां यथास्थिति, केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्‍य लोक सूचना अधिकारी अनुरोध करने वाले व्‍यक्ति को – ऐसी अस्‍वीकृति के लिये कारण; वह अवधि, जिसे भीतर ऐसी अस्‍वीकृति के विरुद्ध कोई अपील की जा सकेगी; और अपील प्र‍ाधिकारी की विशिष्‍टयाँ, संसूचित करेगा ।

किसी सूचना को साधारणतया उसी प्रारूप में उपलब्‍ध कराया जाएगा, जिसमें उसे मांगा गया है, जब तक कि वह लोक प्रधिकारी के स्‍त्रोतों को अनपाती रूप से विचलित न करता हो या प्रश्‍नगत अभिलेख की सुरक्षा या संरक्षण के प्रतिकूल न हो ।

सूचना के प्रकट किये जाने से छूट – इस अधिनियम में अंतर्विष्‍ट किसी बात के होते हुए भी, व्‍यक्ति को निम्‍नलिखित सूचना देने की बाध्‍यात नहीं होगी –
          (क) सूचना, जिसके प्रकटन से भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्‍य की सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हित, विदेश से संबंध पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो या किसी अपराध को करने का उद्दीपन होता हो;
          (ख) सूचना, जिसके प्रकाशन को किसी न्‍यायालय या अधिकारण द्वारा अभिव्‍यक्त रूप से निषिद्ध किया गया है या जिसके प्रकटन से न्‍यायालय का अवमान होता है;
          (ग) सूचना, जिसके प्रकटन से संसद या किसी राज्‍य के विधान मंडल के विशेषाधिकार का भंग कारित होगा;

सूचना, जिसमें वाणिज्यिक विश्‍वास, व्‍यापार गोपनीयता या बौद्धिक संपदा सिम्‍मलित है, जिसके प्रकटन से किसी पर व्‍यक्ति की प्रतियोगी स्थिति को नुकसान होता है, जब तक कि सक्षम प्राधिकारी का यह समाधन नहीं हो जाता है कि ऐसी सूचना के प्रकटन से विस्‍तृत लोक हित का समर्थन होता है; आद‍ि

(Word Count - 452)

सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (भाग - 3)


अतिरिक्‍त वाद का वर्जन – जहां वादी किसी विशिष्‍ट वाद-हेतुक के संबंध में अतिरिक्‍त वाद संस्थित करने से नियमों द्वारा प्रवारित है वहां वह किसी ऐसे न्‍यायालय में जिसे यह संहिता लागू है, कोई वाद ऐसे वाद-हेतुक के संबंध में संस्थित करने का हकदार नहीं होगा । 

विदेशी निर्णय कब निश्‍चायक नहीं होगा – विदेशी निर्णय, उसके पक्षकारों के बीच या उसी हक से अधीन मुकदमा करने वाले ऐसे पक्षकारों के बीच, जिनसे व्‍युत्‍पन्‍न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते है, प्रत्‍यक्षत: न्‍यायानिर्णीत किसी विषय के बारे में वहां के सिवाय निश्‍चयात्‍मक होगा । 

विदेशी निर्णयों के बारे में उपधारणा – न्‍यायालय किसी ऐसे दस्‍तावेज के पेश किए जाने पर जो विदेशी निर्णय की प्रमाणित प्रति होना तात्‍पर्यित है यदि अीिालेख के इसके प्रतिकूल प्र‍तीत नहीं होता है तो यह उपधारणा करेगा कि ऐसा निर्णय सक्षम अधिकारिता वाले न्‍यायालय द्वारा सुनाया गया था किंतु ऐसा उपधारणा को अधिकारिता का अभाव साबित करके विस्‍थापित किया जा सकेगा । 

वह न्‍यायालय जिसमें वाद संस्थित किया जाए – हर वाद उस निम्‍नतम श्रेणी के न्‍यायालय में संस्थित कया जाएगा जो उसका विचारण करने के लिए सक्षम है । 

वादों का वहाँ स‍ंस्थित किया जाना जहां विषय–वस्‍तु स्थित है – किसी विधि द्वारा विहित धन-संबंधी या अन्‍य परिसीमाओं के अधीन रहते हुए, वे वाद जो – 

(क) भाटक या लाभों के सहित या रहित स्‍थावन के प्रत्‍युद्धरण के लिए, 
(ख) स्‍थावर संपत्ति के विभाजन के लिए, 
(ग) स्‍थावर संपत्ति के बंध की या उस पर के भार की दशा में पुरोबंध, विक्रय या मोचन के लिए, 
(घ) स्‍थावर संपत्ति में के किसी अन्‍य अधिकार या हित के अवधारण के लिए, 
(ङ) स्‍थावर संपित्‍त के प्रति किए गए दोष के लिए प्रतिकर के लिए, 
(च) करस्‍थम् या कुर्की के वस्‍तुत ; अधीन जगम संपत्ति के प्रत्‍युद्धरण के लिए हैं, 

उस न्‍यायालय में संस्थित किए जाएंगे जिसकी अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर वह संपत्ति स्थित है 

परंतु प्रतिवादी के द्वारा या निमित्‍त धारित स्‍थावर संपत्ति के संबंध में अनुतोष की या ऐसी संपत्ति के प्रति किए गए दोष के लिए प्रतिकर की अभिप्राप्ति के लिए वाद, जहाँ चाहा गया अनुतोष उसके स्‍वीय आज्ञानुवर्तन के द्वारा पूर्ण रूप से अभिप्राप्‍त किया जा सकता है, उस न्‍यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर संपत्ति स्थित है या उस न्‍यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर प्रतिवादी वास्‍तव में और स्‍वेच्‍छा से निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्‍वयं काम करता है, संस्थित किया जा सकेगा । 

विभिन्‍न न्‍यायालयों की अधिकारिता के भीतर स्थित स्‍थाव संपत्ति के लिए वाद – जहाँ वाद विभिन्‍न न्‍यायालयों की अधिकारिता के भीतर स्थित स्‍थाव संपित्‍त के संबंध में अनुतोष की या ऐसी संपत्ति के प्रति किए गए दोष के लिए प्रतिकर की अभिप्राप्ति के लिए है वहाँ वह वाद किसी भी ऐसे न्‍यायालय में संस्थित किया जा सकेगा जिसकी अधिकारिता की स्‍थानीय सीमाओं के भीतर संपत्ति का कोई भाग स्थित है : 

परंतु यह तब जबकि पूरा दावा उस वाद की विषय-वस्‍तु के मूल्‍य की दृष्टि से ऐसे न्‍यायालय द्वारा संज्ञेय है ।

(Word Count - 492)

भारतीय दंड संहिता 1860 (भाग - 4)


जुर्माना देने पर कारावास का पर्यवसान हो जाना – जुर्माना देने में व्‍यक्तिक्रम होने की दशा के लिये अधिरोपित कारावास तब पर्यवसित हो जायेगा, जब वह जुर्माना या तो चुका दिया जाये या विधि की प्रक्रिया द्वारा उद्गृहीत कर लिया जाये । 

जुर्माना जमा करने की जो अवधि है उसमें विस्‍तार करने का न्‍यायालय को अधिकार नहीं माना गया । याचिकाकारगण को भारतीय दंड संहिता की धारा 68 के प्रावधान के तहत उपचार हासिल करना चाहिए । 

जुर्माने के आनुपातिक भाग के दिये जाने की दशा में कारावास का पर्यवसान – यदि जुर्माना देने में व्‍यक्तिक्रम होने की दशा के लिये नियत की गई कारावास की अवधि का अवसान होने से पूर्व जुर्माने का ऐसा अनुपात चुका दिया या उद्गृहीत कर लिया जाये कि देने में व्‍यक्तिक्रम होने पर कारावास की जो अवधि भोगी जा चुकी हो, वह जुर्माने के तब तक न चुकाये गये भाग के आनुप‍ातिक से कम न हो तो कारावास पर्यवसित हो जायेगा । 

जुर्माने का छह वर्ष के भीतर या कारावास के दौरान में उद्गृहीत होना एवं सम्‍पत्ति को दायित्‍व से मृत्‍यु उन्‍मुक्‍त नहीं करती – जुर्माना या उसका कोई भाग, जो चुकाया न गया हो, दंडादेश दिये जाने के पश्‍चात छह वर्ष के भीतर किसी भी समय, और यदि अपराधी दंडादेश के अधीन छह वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय हो तो उस कालावधि के अवसान से पूर्व किसी भी समय, उद्गृहीत किया जा सकेगा, और अपराधी की मृत्‍यु किसी भी सम्‍पत्ति को, जो उसकी मृत्‍यु के पश्‍चात उसके ऋणों के लिये वैध रूप से दायी हो, इस दायित्‍व से उन्‍मुक्‍त नहीं करती । 

कई अपराधों से मिलकर बने अपराध के लिये दंड की अवधि – जहां कि कोई बात, जो अपराध है, ऐसे भागों से, जिनमें का कोई भाग स्‍वयं अपराध है, मिलकर बनी है, वहां अपराधी अपने ऐसे अपराधों में से एक से अधिक के दंड से दंडित न किया जायेगा, जब तक कि ऐसा अभिव्‍यक्‍त रूप से उपबंधित न हो । 

जहां कि कोई बात अपराधों को परिभाषित या दंडित करने वाली किसी तत्‍समय प्रवृत्‍त विधि की दो या अधिक पृथक परिभाषाओं में आने वाला अपराध है, अथवा 

जहां कोई कार्य, जिसमें से स्‍वयं एक से या स्‍वयं एकाधिक से अपराध गठित होता है, मिलकर भिन्‍न अपराध गठित करते हैं; 

वहां अपराधी को उससे गुरुत्‍तर दंड से दंडित न किया जायेगा, जो ऐसे अपराधों में से किसी भी एक के लिये वह न्‍यायालय, जो उसका विचारण करे, उसे दे सकता हो । 

कई अपराधों में से एक दोषी व्‍यक्ति के लिये दंड जबकि निर्णय में यह कथित है कि यह संदेह है कि वह किस अपराध का दोषी है – उन सब मामलों में जिनमें यह निर्णय दिया जाता है कि कोई व्‍यक्ति उस निर्णय में विनिर्दिष्‍ट कई अपराधों में से एक अपराध का दोषी है, किंतु यह संदेहपूर्ण है कि वह उन अपराधों में से किस अपराध का दोषी है, यदि वही दंड सब अपराधों के लिये उपबंधित नहीं है तो वह अपराधी उस अपराध के लिये दंडित किया जायेगा, जिसके लिये कम से कम दंड उपबंधित किया गया है ।

(Word Count - 489)

Saturday, 17 March 2018

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (भाग - 4)

अन्‍तर्राष्‍ट्रीय प्रसंविदायें : 

मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये सन् 1966 में दो प्रसंविदायें की गईं जिन्‍हें ‘नागरिकों तथा राजनैतिक अधिकारों की अन्‍तर्राष्‍ट्रीय प्रसंविदा’ एवं ‘आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्‍कृतिक अधिकारों की प्रसंविदा’ के नाम से जाना जाता है । यह दोनों प्रसंविदायें अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मानवाधिकार बिल के भाग हैं । 

नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों की प्रसंविदा में जिन अधिकारों का उल्‍लेख किया गया है उनमें प्रमुख हैं – 

          (1) जीवन, सुरक्षा एवं स्‍वतंत्रता का अधिकार; 
          (2) विचार एवं अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का अधिकार; 
          (3) विधि के समक्ष समानता का अधिकार; 
          (4) बलात श्रम एवं दासता से मुक्ति का अधिकार; आद‍ि । 

जबकि अर्थिक, सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक अधिकारों की प्रसंविदा में वर्णित अधिकारों में – 

          (1) स्‍वतंत्रता का अधिकार;
          (2) जीवन एवं समुचित जीवन यापन का अधिकार;
          (3) काम की न्‍यायोचित दशाएं;
          (4) शिक्षा, चिकित्‍सा एवं स्‍वास्‍थ्‍य का अधिकार;
आदि प्रमुख हैं । 

इन प्रसंविदाओं में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की महासभा द्वारा दिनांक 16 सितम्‍बर, 1966 को अंगीकृत किया गया तथा सदस्‍य राष्‍ट्रों का व्‍यापक समर्थन मिला । मानवाधिकारों की क्रियान्विति की दिशा में इन प्रसंविदाओं को महान उपलब्धि माना जाता है । 

गृह मंत्रालय की अधिसूचना संख्‍या एस. ओ. 2397 (ई), दिनांक 18 सितम्‍बर, 2009 द्वारा संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की महासभा द्वारा अंगीकृत निम्‍नांकित अभिसमयों को केंद्रीय सरकार द्वारा विनिर्दिष्‍ट किया गया है – 

          (1) महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के विभेदों को समाप्‍त करने पर अभिसमय; तथा 
          (2) बाल अधिकारों पर अभिसमय । 

यूरोपीय संधि : 

मानवाधिकारों को विधिक स्‍वरूप प्रदान करने तथा व्‍यवहार में इन्‍हें प्रभावी रूप से लागू करने के लिये सन् 1950 में यूरोपीय देशों द्वारा की गई संधि का भी अपना अनूठा स्‍थान है । इस संधि के अंतर्गत यूरोपीय देशों की परिषद् द्वारा एक कमीशन तथा न्‍यायालय की स्‍थापना की गई । कमीशन का कार्य मानवाधिकारों के उल्‍लंघन विषयक मामलों की जांच करना तथा न्‍यायालय का कार्य उस पर निर्णय देना है । मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को कार्यान्वित करने का यह एक महत्‍वपूर्ण प्रयास है ।

मानवाधिकार कोष :

मानवाधिकारों के क्रियान्‍वयन की दिशा में मानवाधिकार कोष की स्‍थापना का उल्‍लेख किया जाना प्रासंगिक होगा । 18 दिसम्‍बर, 1991 को संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की महासभा द्वारा एक स्‍वैच्छिक मानवाधिकार न्‍यास कोष की स्‍थाना की घोषणा की गई । इस कोष में प्राप्‍त धनराशि का उपयोग गुलामी और दासता में पल रहे मानव समुदाय को उत्‍पीड़न से मुक्ति दिलाने तथा उन्‍हें समुचित संरक्षण प्रदान करने के लिये किया जाता है । 

(Word Count - 385)

लेख क्रमांक :- 16 (Word Count - 394)


चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासम्मेलन में स्वीकृत हुए वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) के प्रस्ताव के जवाब में जापान की पहल पर भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की युति से दुनिया के शक्ति संतुलन का नया मानचित्र बनने की संभावना बढ़ गई है। जापानी विदेश मंत्री तारो कोनो के बयान से लग रहा है कि इसका स्वरूप चीन की योजना के विकल्प के तौर पर होगा और इसमें दुनिया के अन्य देशों को जोड़ा जाएगा। चीन की विस्तारवादी नीति से भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे अहम देश तो चिंतित हैं ही एशिया और अफ्रीका के अन्य देश भी बेचैन हैं पर वे जाएं तो जाएं कहां। पहले से चर्चा में रही इस योजना को जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे दोबारा सत्ता में आने के बाद ठोस रूप देने को उत्सुक हैं। इस पर तारो कानो ने ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री जूली बिशप और अमेरिकी विदेश मंत्री रैक्स टिलरसन से अगस्त में ही बात की थी। इस बीच भारत के दौरे पर आए टिलरसन ने दक्षिण एशिया में सड़क और बंदरगाह बनाने पर जोर दिया ताकि एशिया और प्रशांत क्षेत्र की व्यापारिक और सामरिक नीति को नया आयाम दिया जा सके। शिंजो आबे और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की 6 नवंबर को होने वाली मुलाकात भी इस दिशा में खास हो सकती है। इस योजना के माध्यम से अमेरिका भारत की भूमिका को बढ़ाने को उत्सुक है। अमेरिका चाहता है उसके ऐसे रिश्ते बनें जो आने वाले सौ वर्षों तक कारगर हों। रिश्तों के इसी खाके में अफगानिस्तान में भारत की भूमिका बढ़ाने की भी बात है, जो अपने में सबसे आरंभिक पहल कही जा सकती है। इस दीर्घकालिक सामरिक योजना को अगर व्यापारिक योजना के तहत क्रियान्वित किया जाएगा तो दुनिया के दूसरे देश भी आकर्षित होंगे और विश्व समुदाय के नियमों को लागू करने में सुविधा होगी। यह सही है कि अमेरिका दुनिया के नियमों को अपने ढंग से हांकता है लेकिन, वह दुनिया को पटरी पर रखने की जिम्मेदारी भी उठाता है। जबकि चीन अपनी बढ़ती सामरिक और आर्थिक शक्ति के कारण नियमों को ताक पर रखकर अपनी दुनिया बनाना चाहता है। इसी कारण उसने साठ देशों को जोड़ने वाली ओबीओआर योजना तैयार की है और भारत ने सम्प्रभुता का सवाल उठाकर उसमें शामिल होने से मना कर रखा है। देखना है कि जापान की पहल वाली इस नई योजना का स्वरूप क्या होता है और भारत उसमें किस प्रकार शामिल होता है।

लेख क्रमांक :- 15 (Word Count - 352)


अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत सुधारने के लिए भारत सरकार ने दवाओं की बजाय टॉनिक देने का फैसला किया है, इसलिए उम्मीदों के बीच संदेह के सवाल भी उठने लगे हैं। मंगलवार को जैसे ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए अगले दो सालों में 2.11 खरब रुपए की पूंजी जुटाने का फैसला किया वैसे ही अगले दिन शेयर बाजार में बैंकों के शेयर उछलने लगे। भारतीय स्टेट बैंक के शेयर में जनवरी 2015 के बाद पहली बार 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई और एनएसई में 1.3 प्रतिशत का उछाल दर्ज किया गया। उधर सड़क निर्माण के काम में सात खरब रुपए निवेश के एलान के साथ भी चौतरफा उत्साह दिखाई दिया। वित्त मंत्री ने उन आलोचनाओं का भी जवाब देने का प्रयास किया है, जो पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और पूर्व विनिवेश मंत्री अरुण शौरी से शुरू होकर थामस पिकेटी के असमानता संबंधी आंकड़े और वैश्विक भूख सूचकांक में भारत के पतन संबंधी सर्वेक्षण के साथ सरकार को चारों तरफ से घेर रही थीं। गुजरात विधानसभा चुनाव के एलान के ठीक पहले लिए गए इस फैसले में एक राजनीतिक माहौल भी बनाने का प्रयास दिखाई पड़ता है। वजह साफ है कि गुजरात सिर्फ एक राज्य का चुनाव नहीं है वह भाजपा के राजनीतिक और आर्थिक मॉडल की अग्निपरीक्षा है और इसमें मौजूदा सरकार को खरा उतरना है। अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए उठाए गए इन कदमों से बैकों की पूंजी बढ़ने और कर्जलिए जाने में तेजी आने की उम्मीद है। स्थितियों के ठीक रहने की उम्मीद के साथ संदेह के सवाल भी जुड़े होते हैं। वैश्विक रेटिंग एजेंसी फ्लिच का कहना है कि भारतीय बैंकों को 2019 तक 65 अरब डॉलर पूंजी की जरूरत है, जबकि मौजूदा पूंजी उसकी आधी है। सरकार के एलान में इस पूंजी के जुटाए जाने का खाका भी स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा कर्ज के बाजार में होने वाली बढ़ोतरी के साथ वित्तीय घाटे को जीडीपी के 3.6 प्रतिशत तक रखने की चुनौती भी पेश होगी। इस कदम की कामयाबी के समक्ष बट्टे खाते का कर्ज और रुकी हुई परियोजनाएं सबसे बड़ी बाधा हैं अब देखना है सरकार उन्हें कैसे दूर करती है।

Typing Dictation No :- 2 (45WPM)




पूरी न्‍यायिक प्रणाली के शीर्ष पर हमारा उच्‍चतम न्‍यायालय है। हर राज्‍य या कुछ राज्‍यों के समूह पर उच्‍च न्‍यायालय है। उनके अंतर्गत निचली अदालतों का एक समूचा तंत्र है। कुछ राज्‍यों में पंचायत न्‍यायालय अलग–अलग नामों से काम करते हैं, जैसे न्‍याय पंचायत, पंचायत अदालत, ग्राम कचहरी इत्‍यादि इनका काम छोटे और मामूल प्रकार के स्‍थानीय दीवानी और आपराधिक मामलों का निर्णय करना है। राज्‍य अलग–अलग कानून इन अदालतों का कार्यक्षेत्र निर्धारित करते हैं।

वे सभी मुकदमे जो उच्‍च न्‍यायालय सर्वोच्‍च न्‍यायालय के सम्‍मुख या निचली अदालतो के निर्णयों के विरुद्ध अपील के रूप में आते हैं, अपीलीय क्षेत्रधिकार के अंदर आते हैं, इसके अंतर्गत तीन तरह की अपीलें सुनी जाती है। 

(1) संवैधानिक मामलों में सर्वोच्‍च न्‍यायालय किसी राज्‍य के उच्‍च न्‍यायालय कि अपील तब सुन सकता है जब वह इस बात को प्रमाणित करे दे की इस मामले में कोई विशेष वैधानिक विषय है जिसकी व्‍याख्‍या सर्वोच्‍च न्‍यायालय में होना आवश्‍यक है, सर्वोच्‍च न्‍यायालय स्‍वमेव इसी प्रकार का प्रमाण-पत्र देकर अपील के लिए अनुमति दे सकता है। 

(2) फौजदारी अभियोग में सर्वोच्‍च न्‍यायलय में उच्‍च नयायालय के निर्णय अंतिम आदेश अथवा दंड के विरुद्ध अपील तभी की जा सकती है यद‍ि उच्‍च न्‍यायालय प्रमाणित करे कि इस पर निर्णय सर्वाच्‍च न्‍यायलय द्वारा दिया जाना आवश्‍यक है। 

(3) दीवानी मामलों में उच्‍च न्‍यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्‍च न्‍यायालय में अपील इस अवस्‍थाओं में हो सकती है (1) उच्‍चतम न्‍यायालय यह प्रमाणित करे कि विवाद का मूल्‍य 20000 रुपए से कम नहीं है, अथवा (2) मामला अपील के योग्‍य है, (3) उच्‍च न्‍यायलय स्‍वयं भी फौजदारी अदालतो को छोड़ कर अन्‍य किसी न्‍यायलय के विरुद्ध अपील करने की विशेष अनुमति दे सकता है।

संविधान ने सर्वोच्‍च न्‍यायलय को परामर्श संबंधि क्षेत्राधिकर भी प्रदान किया है। अनुच्‍छेद 143 के अनुसार यदि किसी समय राष्‍ट्रपति को प्रतीत हो कि विधि या त‍थ्‍य का कोई ऐसा प्रश्‍न उपस्थित हुआ है जो सार्वजनिक महात्‍व का है तो उक्‍त प्रश्‍न पर वह सर्वोच्‍च न्‍यायलय से परामर्श मांग सकता है। सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा दिए गए परामर्श को स्‍वीकार करना या न करना राष्‍ट्रपति की इच्‍छा पर निर्भर करता है। 

सर्वोच्‍च न्‍यायालय एक अभिलेख न्‍यायालय के रूप में कार्य करता है। इसका अर्थ है कि इसके द्वारा सभी निर्णयों को प्रकाशित किया जाता है तथा अन्‍य मुकदमों में उसका हवाला दिया जा सकता है। संविधान का अनुच्‍छेद 129 घोषित करता है कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय अभिलेख न्‍यायालय होगा और उनको अपनी अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्‍यायालय कि सभी शक्तियां प्राप्‍त होगी। 

मूल अधिकार के प्रर्वतन के लिए उच्‍चतम न्‍यायालसय तथा उच्‍च न्‍यायालय को रिट अधिकार प्राप्त है। अनुच्‍छेद 32 के तहत प्राप्त इस अधिकारिता का प्रयोग सर्वोच्‍च न्‍यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में राज्‍य के विरुद्ध उपचार प्रदान करने के लिए करता है।

(Word Count - 458)

Typing Dictation No :- 1 (45WPM)



भारत से परे किय गए किन्‍तु उसके भीतर विधि के अनुसार विचारणीय अपराधों का दंड – भारत से परे किये गए अपराध के लिए जो कोई व्‍यक्ति किसी भारतीय विधि के अनुसार विचारण का पात्र हो भारत से परे किये गए किसी कार्य के लिए उससे इस संहिता के उपबंधों के अनुसार ऐसा बरता जाएगा, मानो वह कार्य भारत के भीतर किया गया था। 

कुछ विधियों पर इस अधिनियम द्वारा प्रभाव न डाला जाना – इस अधिनियम में कि कोई बात सरकार की सेवा के ऑफिसरों, सैनिकों, नौसैनिकों या वायुसैनिकों द्वारा विद्रोह और अभित्‍यजन को दंडित करने वाले किसी अधिनियम के उपबंधों या किसी विशेष या स्‍थानीय विधि के उपबंधों पर प्रभाव नहीं डालेगा। 

संहिता में कि परीभाषाओं का अपवादों के अध्‍याधीन समझा जाना – इस स‍ंहिता में सर्वत्र अपराध की हर परिभाषा, हर दंड उपबंध और हर ऐसी परिभाषा या दंड का हर दृष्‍टांत, साधारण अपवाद शीर्षक वाले अध्‍याया में अंतरविष्‍ट अपवादों के अध्‍याधीन समझा जाएग, चाहे उन अपवादों को ऐसी परिभाष दंड उपबंध या दृष्‍टांत में दोहराया न गया हो । 

न्‍यायाधीश – ‘न्‍यायाधीश’ शब्‍द न केवल हर ऐसे व्‍यक्ति का घोतक होता है, जो पद रूप से न्‍यायाधीश अभिविहित हो, किन्‍तु उस हर व्‍यक्ति का द्योतक है, जो किसी विधि कार्यवाही में, चाहे वह सिविल हो या दांडिक, अंतिम निर्णय या ऐसा निर्णय जो उसके विरुद्ध अपील न होने पर अंतिम हो जाए, या ऐसा निर्णय जो किसी अन्‍य प्राधिकारी द्वारा पुष्‍ट किये जाने पर अंतिम हो जाए, देने के लिए विधि द्वारा सशक्‍त किया गया हो। 

न्‍यायालय – ‘न्‍यायालय’ शब्‍द उस न्‍यायाधीश का, जिसे अकेले ही या न्‍यायिकत: कार्य करने के लिए विधि द्वारा सशक्‍त किया गया हो, उस न्‍यायाधीश निकाय का, जिसे एक निकाय के रूप में न्‍यायिकत: कार्य करने के लिए विधि द्वारा सशक्‍त किया गया हो, जबकि ऐसा न्‍यायाधीश या न्‍यायाधीश निकाय न्‍यायिकत: कार्य कर रहा हो, द्योतक है। 

सामान्‍य आशय को अग्रसर करने में कई व्‍यक्तियों द्वारा किए गए कार्य – जबकि कोई आपराधिक कार्य कई व्‍यक्तियों द्वारा अपने सबके सामान्‍य आशय करने में किया जाता है, तब ऐसे व्‍यक्तियों में से हर व्‍यक्ति उस कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्‍व के अधीन है, मानो वह कार्य अकेले उसी ने किया हो। 

जबकि ऐसा कार्य इस कारण आपराधिक है कि वह आपराधिक ज्ञान या आशय से किया गया है – जब कभी कई कार्य, जो आपराधिक ज्ञान या आशय से किया जाने के कारण ही आपराधिक हैं, कई व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तब ऐसे व्‍यक्तियों में से हर व्‍यक्ति, जो ऐसे ज्ञान या आशय से उस कार्य में सम्मिलित होता है , उस कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्‍व के अधीन है, मानो वह कार्य उस ज्ञान या आशय से अकेले उसी के द्वारा किया गया हो।

(Word Count - 442)

Friday, 16 March 2018

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (भाग - 3)


संयुक्‍त राष्‍ट्र चार्टर : 

संयुक्‍त राष्‍ट्र चार्टर को मानवाधिकारों का प्रथम अन्‍तर्राष्‍ट्रीय दस्‍तावेज कहा जा सकता है। इस चार्टर में मानवाधिकारों को महत्‍वपूर्ण स्‍थान दिया गया है। चार्टर की प्रस्‍तावना में ही मानवाधिकारों के प्रति अटूट विश्‍वास व्‍यक्‍त किया गया है। चार्टर के अनुच्‍छेद 1(3) में इसके उद्देश्‍यों पर पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ का यह लक्ष्‍य है कि वह मानवाधिकारों तथा मूलभूत स्‍वतंत्रतओं को बिना किसी जाति, भाषा, लिंग अथवा धर्म विषयक भेदभाव के प्रोत्‍साहित करे। चार्टर के अनुच्‍छेद 55 में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ मानव उत्‍थन की ओर अग्रसर होने के लिये जाति, लिंग, धर्म भाषा आदि के आधार पर भेदभाव किये बिना मानवाधिकारों तथा मूलभूत स्‍वतंत्रओं का आदर तथा उनका पालन सुनिश्चित करें। अनुच्‍छेद 56 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के सदस्‍य राष्‍ट्रों द्वारा उपरोक्‍त उद्देश्‍य को मूर्तरूप प्रदान करने की दिशा में पारित संकल्‍प निहित है। मानवाधिकारों की प्रभावी क्रियान्विती सुनिश्चित करने के लिये चार्टर में आर्थिक तथा सामाजिक परिषद को विपुल अधिकार प्रदान किये गए हैं। चार्टर में प्रन्‍यासी प्रणाली पर भी यह दायिव्‍त अधिरोपित किया गया है कि वह मानवाधिकारों को प्रन्‍यासी क्षेत्रों में लागू करने का हर संभव प्रयास करे। 

मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा : 

न्‍यायाधीश लाटरपेट ने मत में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, 1948 विश्‍व की एक महानतम घटना तथा संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की एक महत्‍वपूर्ण उपलब्धि है। सन् 1945 में जब संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की स्‍थाना हुई तब उसका एक चार्टर तैयार किया गया था। इस चार्टर के अनुच्‍छेद 68 में मानवाधिकारों के सरंखण के लिये प्रारूप तैयार करने हेतु सन् 1946 में एलोनोर रूजवेल्‍ट की अध्‍यक्षता में एक मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया । आयोग ने जून 1948 में मानवाधिकार की एक विश्‍वव्‍यापी घोषणा का प्रारूप तैयार किया जिसे संयुक्‍त्‍ राष्‍ट्र संघ की महासभा द्वारा 10 दिसम्‍बर को अंगीकृत किया गया। यही कारण है कि 10 दिसम्‍बर को सम्‍पूर्ण विश्‍व ‘मानवाधिकार दिवस’ के रूप में मनाता है। मानवाधिकार घोषणा पत्र में उन सभी बिन्‍दुओं को समाहित किया गया है जो गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिये आवश्‍यक है। इस घोषणा पत्र में कुद 30 अनुच्‍छेद हैं । इसके अनुसार – 

1) सभी मनुष्‍य स्‍वतंत्र रूप से जनम लेते हैं तथ प्रतिष्‍ठा एवं अधिकारों की दृष्टि से समान है। 

2) प्रत्‍येक व्‍यक्ति की जीवन, स्‍वतंत्रता तथा सुरक्षा का अधिकार है। 

3) किसी भी व्‍यक्ति को दास अथव गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकेगा। 

4) किसी भी व्‍यक्ति के साथ न तो अमानवीय व्‍यवहार किया जायेगा और न उसे क्रूरतम दंड दिया जायेगा। 

5) विधि के समक्ष सभी व्‍यक्ति समान होंगे। 

6) सभी व्‍यक्तियों को शांतिपूर्वक सम्‍मेलन करने, भ्रमण करने तथा व्‍यापार-व्‍यवसाय करने की स्‍वतंत्रता होगी। 

7) प्रत्‍येक व्‍यक्ति को शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के समान अवसर उपलब्‍ध होंगे। 

8) सभी व्‍यक्तियों को शिक्षा प्राप्‍त करने का अधिकार होगा तथा प्रारंभिक शिक्षा नि:शुल्‍क एवं अनिवार्य होगी। 

9) प्रत्‍येक व्‍यक्ति को सम्‍पत्ति रखने का तथा से व्‍ययन का अधिकार होगा। 

10) अभियुक्‍त को तब तक निर्दोष माना जायेगा जब तक कि उसके विरुद्ध दोषसिद्धि का आदेश पारित न हो जाये। 

11) प्रत्‍येक व्‍यक्ति को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जायेगा । 

12) किसी भी व्‍यक्ति को मनमाने तौर पर गिरफ्तार नहीं किया जायेगा और न बंदी बनाया जायेगा । 

13) सभी वयसक पुरुष एवं स्त्रियों को विवाह करने तथा कुटुम्‍ब बसाने का अधिकार होगा । 

14) सभी को समान कार्य के लिये समान वेतन दिया जायेगा । 

इस प्रकार घोषणा पत्र में विहित उपरोक्‍त सभी अधिकार वे ही हैं जो भारत में संविधान के भाग तीन एवं चार में मूल अधिकारों एवं राज्‍य की नीति के निदेशक तत्‍वों के रूप में समाहित किये गये हैं।

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मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (भाग - 2)


मानवाधिकारों का अन्‍तर्राष्‍ट्रीय घोषणा पत्र – 

           मानवाधिकारों के वट वृक्ष की जड़ें अतीत की गहराइयों में छिपी हैं। इनके इतिहास की कहानी मानव सभ्‍यता के अभ्‍युदय एवं विकास से जुड़ी हुई है। यद्यपि अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर मानवाधिकारों की स्‍थापना का प्रथम दस्‍तावेज संयुक्‍त राष्‍ट्र चार्टर को माना जाता है लेकिन मूल अधिकारों के रूप में इसका श्रेय 1215 के मेग्‍नाकार्टा को जाता है। मेग्‍नाकार्टा से प्रवाहित मानवाधिकारों की गंगा आज अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में प्रवाहित हो रही है। 

मेग्‍नाकार्टा :- 

          मूल अधिकारों के रूप में मानवाधिकारों की स्‍थापना का प्रथम दस्‍तावेज इंग्‍लैंड का सन् 1215 का मेग्‍नाकार्टा माना जाता है। यह इंग्‍लैंडवासियों को सम्राट जॉन का एक महत्‍वपूर्ण उपहार था। इसे मूल अधिकारों का जनक भी कहा जाता है। यही वह अधिकार पत्र था जिसके द्वारा इंग्‍लैंड में विधि के शासन को मूर्त रूप प्रदान किया गया था। विधिक प्रत्‍यय ‘समुचित प्रक्रिया’ की उपज मेग्‍नाकार्टा की ही देन है। प्रथम बार मेग्‍नाकार्टा के अनुच्‍छेद 39 में यह व्‍यवस्‍था की गई कि – ‘किसी भी व्‍यक्ति को विधिपूर्ण न्‍याय निर्णयन अथवा देश की विधि से अन्‍यथा रूप से न तो बंदी बनाया जायेगा और न ही बेदखल, निर्वासित, विधि बाध्‍य अथवा विनिष्‍ट ही किया जायेगा। ‘इस प्रकार इस व्‍यवस्‍था द्वारा कार्यपालिका की निरंकुश शक्तियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 

बिल ऑफ राइट्स – 

         मेग्‍नाकार्टा में विहित अधिकारों में देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार अभिवृद्धि होती गई और कालान्‍तर में सन् 1689 में ‘बिल ऑफ राइट्स’ नामक दस्‍तावेज की संरचना की गई। इस दस्‍तावेज में नागरिकों के कई महत्‍वपूर्ण अधिकारों एवं स्‍वतंत्रताओं को समाहित किया गया। बिल ऑफ राइट्स का लाभ अमेरिका की जनता ने भरपूर उठाया। उसने अमेरिका के संविधान में इन अधिकारों को समाविष्‍ट करने की मांग की। परिणामस्‍वरूप अमेरिका के संविधान में पांचवे एवं छठे संशोधनों द्वारा इन अधिकारों को स्‍थान दिया गया और यह व्‍यवस्‍था की गई कि – ‘किसी भी व्‍यक्ति को सम्‍यक् विधिक प्रक्रिया के बिना जीवन, स्‍वतंत्रता एवं संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। ‘स्‍वतंत्रता के भाषण, प्रेम, धर्म, सभा, निवास, विचरण, व्‍यापार, वृत्ति, कारोबार आदि की स्‍वतंत्रतओं को सम्मिलित किया गया। ‘हर्टडो बनाम केलिफोर्निया’ के मामले में यह कहा गया कि – ‘विधायिका ऐसी कोई विधि नहीं बना सकेगी जो न्‍याय और स्‍वतंत्रता के मूलभूत सिद्धान्‍तों पर कुठाराघात करती हो। 

फ्रांस का घोषणा पत्र – 

          फ्रांस में मानवाधिकारों के रूप में मूल अधिकारों की घोषणा सन् 1789 में की गई। जिस दस्‍तावेज द्वारा यह घोषणा की गई वह ‘मानव सिविल अधिकारों को घोषणा पत्र’ कहा जाता है। संक्षेप में इसे ‘मानव अधिकार घोषणा पत्र’ भी कहा जा सकता है। इसमें समाविष्‍ट अधिकारों को मनुष्‍य के पवित्र अधिकारों की संज्ञा दी गई है। यह अधिकार प्राकृतिक एवं असंक्रमणीय है।

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मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (भाग - 1)


           भारतीय संविधान के भाग तीन में वर्णित मूल अधिकारों को इंग्‍लैण्‍ड के मेग्‍नाकार्टा, अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स तथा फ्रांस के मानव अधिकार घोषणा पत्र की संज्ञा दी जाती है। गोलकनाथ बनाम स्‍टेट ऑफ पंजाब के मामले में उच्‍च्‍तम न्‍यायालय ने इन अधिकारों को व्‍यक्ति के बौद्धिक, नैतिक एवं आध्‍यात्मिक विकास के लिए आवश्‍यक माना है। मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में भी उक्‍त मत की पुष्टि करते हुए इन मूल अधिकारों में व्‍यक्ति के सम्‍मान के संरक्षण और व्‍यक्तित्‍व के विकास की परिकल्‍पना की है। इसी मामले में न्‍यायमूर्ति पी० एन० भगवती ने कहा है कि इन मूल अधिकारों का उद्भम स्‍वतंत्रता का संघर्ष है। संविधान में इन्‍हें स्‍थान देने के पीछे मुख्‍य उद्देश्‍य भारत में स्‍वाधीनता का वट वृक्ष विकसित करना रहा है। देश, काल और परिस्‍थतियों के अनुसार इन मूल अधिकारों की परिभाषायें बदलती रही हैं और प्रवर्तन के नये-नये उपाय निकलते रहे हैं। ए० के० गोपालन बनाम स्‍टेट ऑफ मद्रास के मामले में इनकी विधानमंडलों द्वारा अतिक्रमण से सुरक्षा की गई तो केशवनन्‍द भारती बनाम स्‍टेट ऑफ केरल के मामले में इनकों संविधान का मूल ढांचा मानते हुए नष्‍ट होने से बचा लिया गया।

           धीरे-धीरे ये मूल अधिकार मानव अधिकार के रूप में प्रख्‍यात होने लगे। हमारे न्‍यायालयों ने भी इन मूल अधिकारों को मानव अधिकारों के दायरे में ला दिया। जब मानवीय मूल्‍यों का ह्यास एवं मानव अधिकारों का अतिलंघन होने लगा तो न्‍यायालयों ने नई-नई व्‍यवस्‍थायें देकर इन्‍हें पुनर्स्‍थापित करने का प्रयास किया। जेलों में कैदियों के प्रति किये जाने वाले अमानवीय एवं क्रूर व्‍यवहार पर प्रहार करते हुए सुनील बत्रा बनाम दिल्‍ली प्रशासन के मामले में न्‍यायमूर्ति कृष्‍णा अय्यर ने मानव अधिकारों को विधिशास्त्र एवं संविधान का अभिन्न अंग बताते हुए इन्‍हें संरक्षण प्रदान किया। प्रेम शंकर बनाम दिल्‍ली प्रशासन के मामले में तो यहां तक कह दिया गया कि मानव अधिकार संबंधी उपबंधों का निर्वचन करते समय संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के मानव अधिकार घोषणा पत्र में निहित मूल सिद्धान्‍तों को ध्‍यान रखना चाहिए जो जेल, जेलकर्मियों और बंदियों में सुधार का आव्‍हान करता है। सभ्‍य समाज में मानव अधिकारों का मूल्‍य इतना बढ़ता चला गया कि इनके संरक्षण के लिए संसद द्वारा मानवाधिकार संरक्षण अधिनिमय, 1993 ही पारित कर दिया गया। यह अधिनियम मानव अधिकारों के संरक्षण की दिशा में मील का पत्‍थर है। 

           अब तो मानवाधिकारों का दयरा इतना बढ़ गया है कि उच्‍चतम न्‍यायालय में मनोहरलाल बनाम दिनेश आनन्‍द के मामले में यहां तक कह दिया है कि समाज की सुरक्षा के लिए अपराधियों को अभियोजित करना एक सामाजिक आवश्‍यकता है। इसके लिए अधिकारिता की अवधारणा (Concept of Locus Standi) अर्थहीन है। ऐसे मामलों में यह अवधारणा लागू नहीं होती।

          मानवाधिकार को दृष्टिगत रखते हुए ही सुचित्रा श्रीवास्‍तव बनाम चण्‍डीगढ़ एडमिनिस्‍ट्रेशन के मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय द्वारा कहा गया है कि – 

           “A woman’s right to privacy, dignity and bodily integrity should be respected.”

           अर्थात् प्रत्‍येक महिला के एकान्‍तता, गरिमा एवं शरीरिक सौष्‍ठक के अधिकार का सम्‍मान किया जाना चाहिए ।

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भारतीय दंड संहिता 1860 (भाग - 3)


आजीवन कारावास के दंडादेश का लघुकरण – हर मामले में जिसमें आजीवन कारावास का दंडादेश दिया गया हो, अपराधी की सम्‍मति के बिना भी समुचित सरकार उस दंड को ऐसी अवधि के लिए, जो 14 वर्ष से अधिक न हो, दोनों में से किसी भांति के कारावास में लघुकृत कर सकेगी। 

दंडादिष्‍ट कारावास के कतिपय मामलों में संपूर्ण कारावास या उसका कोई भाग कठिन या सादा हो सकेगा – हर मामले में, जिसमें अपराधी दोनों में किसी भांति के कारावास से दंडनीय है, वह न्‍यायालय, जो ऐसे अपराधी को दंडादेश देगा, सक्षम होगा कि दंडादेश में यह निर्दिष्‍ट करें कि ऐसा संपूर्ण कारावास कठिन होगा, या यह कि ऐसा संपूर्ण कारावास सादा होगा। 

जुर्माने की रकम – जहां कि वह राशि अभिव्‍यक्त नहीं की गई है जितनी तक जुर्माना हो सकता है वहां अपराधी जिस रकम में जुर्माना का दायी है, वह अमर्यादित है किंतु अत्‍यधिक नहीं होगी। 

जुर्माना न देने पर कारावास का दंडादेश – कारावास और जुर्माना दोनों से दंडनीय अपराध के हर मामले में, जिसमें अपराधी करावास सहित या रहित, जुर्माना से दंडादिष्‍ट है। 

तथा कारावास या जुर्माने अथवा केवल जुर्माने से दंडनीय अपराध के हर मामले में, जिसमें अपराधी जुर्माने से दंडाविष्‍ट हुआ है। 

वह न्‍यायालय, जो ऐसे अपराधी को दंडाविष्‍ट करेगा, सक्षम होगा कि दंडादेश द्वारा निदेश दे कि जुर्माना देने में व्‍यतिक्रम होने की दशा में, अपराधी अमुक अवधि के लिये कारावास भोगेगा जो कारावास उस अन्‍य कारावास के अतिरिक्‍त होगा जिसके लिये वह दंडादिष्‍ट हुआ है या जिससे वह दंडादेश के लघुकरण पर दंडनीय है। 

जबकि कारावास और जुर्माना दोनों आदिष्‍ट किये जा सकते हैं, तब जुर्माना न देने पर कारावास की अवधि – यदि अपराध कारावास और जुर्माना दोनों से दंडनीय हो, तो वह अवधि, जिसके लिये जुर्माना देने में व्‍यतिक्रम होने की दशा के लिये न्‍यायालय अपराधी को कारावासित करने का निदेश दे, कारावास की उस अवधि की एक-चौथाई से अधिक न होगी जो अपराध के लिये अधिकतम नियत है। 

जुर्माना न देने पर किस भांति का कारावास दिया जाये – वह कारावास, जिसे न्‍यायालय जुर्माना देने में व्‍यतिक्रम होने के लिये अधिरोपित करे, ऐसा किसी भांति का हो सकेगा, जिससे अपराधी को उस अपराध के लिये दंडाविष्‍ट किया जा सकता था। 

जुर्माना न देने पर कारावास, जबकि अपराध केवल जुर्माना से दंडनीय हो – यदि अपराध केवल जुर्माने से दंडनीय हो तो वह कारावास, जिसे न्‍यायालय जुर्माना देने में व्‍यतिक्रम होने की दशा के लिये अधिरोपित करे, सादा होगा और वह अवधि, जिसके लिये जुर्माना देने में व्‍यतिक्रम होने की दशा के लिये न्‍यायालय अपराधी को कारावासित करने का निदेश दे, निम्‍न मापमान से अधिक नहीं होगी, अर्थात, - जबकि जुर्माने का परिणाम पचास रूपये से अधिक न हो तब दो मास से अनधिक कोई अवधि, तथा जबकि जुर्माने का परिमाण एक सौ रुपये से अधिक न हो तब चार मास से अनधिक कोई अवधि, तथा किसी अन्‍य दशा मे छह मास से अनधिक कोई अवधि । 

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लेख क्रमांक :- 14 (Word Count - 380)


केंद्र ने कश्मीर में अमन की बहाली के लिए खुफिया विभाग के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को मुख्य वार्ताकार नियुक्त कर सही दिशा में सकारात्मक कदम उठाया है। इसकी काफी दिनों से मांग चल रही थी और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती बार-बार प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से मिल भी रही थीं। भाजपा के असंतुष्ट नेता यशवंत सिन्हा और कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर इस दिशा में लंबे समय से प्रयास कर रहे थे। संभव है कि उन अलगाववादियों से भी अनौपचारिक वार्ता की गई हो, जो अक्सर आज़ादी से कम पर किसी वार्ता के लिए राजी नहीं होते। इसका संकेत तो तभी मिल गया था जब स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलान किया था कि कश्मीर समस्या का समाधान न गाली से होगा और न ही गोली से, बात बनेगी तो गले लगाने से। उनका यह एलान देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उस एलान के अनुरूप ही है कि कश्मीर पर संविधान नहीं इंसानियत के दायरे में बात होनी चाहिए। वाजपेयी ने श्रीनगर में इंसानियत और जम्हूरियत के साथ कश्मीरियत के दायरे में वार्ता करने का प्रस्ताव रखकर सभी का मन मोह लिया था और यासीन मलिक और शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता भी उनकी प्रशंसा करने लगे थे। लेकिन, अलगाववादी नेताओं के अड़ियल रवैए और वाजपेयी के फिर सत्ता में न आने से वह सिलसिला टूट गया था। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 2006 और 2007 में उसी तर्ज पर कश्मीर में तीन गोलमेज सम्मेलन कराए लेकिन, उनका नतीजा भी सिफर रहा। उस समय के वार्ताकार दिलीप पाडगांवकर और राधाकुमार ने कई समाधानों के साथ विस्तृत रपट भी दी थी, जिसका इस्तेमाल दिनेश्वर शर्मा भी कर सकते हैं। इसलिए देखना है कि अलगाववादियों से निपटने में माहिर कहे जाने वाले वार्ताकार शर्मा किन पक्षों को बातचीत की मेज तक ला पाते हैं। फारूक अब्दुल्ला की इस बात को भी नज़रंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि समाधान के लिए पाकिस्तान से भी बात होनी चाहिए। हालांकि, सवाल यह है कि पाकिस्तान प्रधानमंत्री शाहिद खकन अब्बासी की सरकार से होने वाली किसी वार्ता का वजन कितना होगा? निश्चित तौर पर सरकार की यह पहल बदली हुई नीति का परिणाम है, क्योंकि उसे लग गया है कि सुरक्षा बलों की सख्ती और नोटबंदी के मार्ग की सीमा आ चुकी है और आगे संवाद का ही मार्ग जाता है।

लेख क्रमांक :- 13 (Word Count - 395)


सुप्रीम कोर्ट ने 18 वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध को दुष्कर्म करार देकर बाल अधिकारों के बारे में समाज और सरकार को कड़ा संदेश दिया है और बेटी बचाओ की दिशा में एक साहसिक कदम उठाया है। बाल विवाह रोकने और अवयस्क लड़कियों के स्वास्थ्य, भविष्य और सम्मान की रक्षा के लिए दिया गया यह फैसला न सिर्फ कानूनी लिहाज से दूरदर्शी है बल्कि सामाजिक लिहाज से बड़ी हलचल पैदा करने वाला है। न्यायमूर्ति मदान बी लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के उस अपवाद को रद्द कर दिया है जो पत्नी की उम्र 15 वर्ष या उससे ऊपर होने पर यौन संबंध को दुष्कर्म नहीं मानता था। आईपीसी की बेहद चर्चित धारा का यह अपवाद 15 से 18 वर्ष की बाल पत्नियों को पति की मर्जी पर छोड़ देता था और उन कानूनों की परवाह नहीं करता था जो बाल अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए हैं। विडंबना देखिए कि ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ अभियान चलाने वाली सरकार इस मामले पर सुनवाई के दौरान अदालत में यह दलील दे रही थी कि न्यायालय भारतीय दंड संहिता के इस अपवाद को न छेड़े, क्योंकि बाल विवाह भारतीय परम्परा का हिस्सा है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे कड़ी फटकार लगाते हुए कहा है कि ऐसे वह बाल विवाह को वैधानिकता प्रदान कर रही है। सरकार की आपत्ति पर अदालत का कहना था कि वह किसी प्रावधान को खारिज करने के बजाय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के मौलिक अधिकार बेटियों को दे रही है और बाल अपराधों को रोकने के लिए बनाए गए बच्चों से यौन अपराध रोकने वाले पोस्को, बाल विवाह रोकने वाले पीसीएमए और हाल में संशोधित बाल अपराध न्याय अधिनियम को सुसंगत तरीके से लागू कर रही है। फैसले से परम्परा की आड़ में होने वाले बाल विवाह तो रुकेंगे ही, देह व्यापार के कारोबार पर भी लगाम लगेगी जो विवाह की आड़ में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होता है। वे दंपती भी साथ रहने से बचेंगे जो बालिग नहीं हैं। कई कानूनों के बावजूद कुछ वर्षों पहले किए गए राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 18 से 29 वर्ष की स्त्रियों में 46 प्रतिशत ऐसी हैं, जिनका विवाह 18 साल से पहले हो चुका था। यह समाज की बड़ी बुराई है लेकिन, इस बारे में विधायिका और कार्यपालिका के बजाय न्यायपालिका को पहल करनी पड़ती है।

Thursday, 15 March 2018

सबसे बड़े लोकतंत्र का आम चुनाव


चुनाव आयोग द्वारा मतदान की तारीखों की घोषणा के साथ ही भारत में आम चुनाव (लोकसभा चुनाव) को रणभेरी बज उठी है। चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव की घोषणा कर देश में 16वीं लोकसभा के गठन की प्रक्रिया को प्रारंभ कर दिया है। देश में 16वीं लोकसभ के लिये कुल नौ चरणों में मतदान होगा। इसका पहला चरण 7 अप्रैल से शुरू होगा और अंतिम चरण 12 मई को होगा। 16 मई को पूरे देश में वोटों की गिनती कर परिणामों की घोषणा होगी। इस दिन भारत हो नहीं बल्कि दुनियाभर में लोगों की नजर विश्‍व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के सियासी घटनाक्रम पर रहेगी। इस बार के चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव 2009 के मुकाबले 12 करोड़ से अधिक युवा मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे। इत तरह भारत में लोकसभा चुनाव 2014 के नौ चरणों के मतदान में 81 करोड़ से अधिक मतदाता अपने लिये नई सरकार के साथ-साथ अपने भविष्‍य की दिशा भी चुनेंगे। इस बार नोटा (नन ऑफ द अबव) का विकल्‍प भी मतदाओं के पास होगा यानि किसी भी प्रत्‍याशी को न चुनने का अधिकार भी अब आमजन के पास होगा। देश में चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से और निष्‍पक्ष रूप से सम्‍पन्‍न हो इसके लिये चुनाव आयोग पूरी तरह मुस्‍तैद है। यह चुनाव आयोग की निष्‍पक्षता का ही परिणाम है कि अन्‍य विकासशील देशों में तरह हमारे देश में चुनाव परिणामों पर सवाल नहीं उठाया जाता है। चुनाव की घोषणा के साथ ऐसे कई प्रश्‍न हमारे सामने हैं जिनका जवाब 16 मई को ही मिलेगा। मतदाताओं का फैसला सरम्‍परागत राजनीतिक दलों की हदों तक सिमटा होगा या वे नये विकल्‍पों के प्रति आकर्षित होंगे। लगभग 12 करोड़ नये युवा मतदाताओं का रुझान कितना प्रभावित करेगा।

भारत की जनता के सामने अतीत में जब भी गंभीर सवाल खड़े हुए हैं उन्‍होंने इनका जवाब परिपक्‍वता और समझादारी से दिया है। उन्‍होंने उपलब्‍ध विकल्‍पों के बची सर्वश्रेष्‍ठ का चुनाव किया है। यह हमारे मतदाताओं की बुद्धि कोशल का पिरणाम है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था पर कभी भी आशंका के बादल नहीं छाये। भारतीय लोकतंत्र एक विश्‍वासीनय और जनप्रिय व्‍यवस्‍था के लिए जाना जाता है। भारत जैसे अन्‍य विकासशील देशों में लोगतांत्रिक व्‍यवस्‍था इतनी कामयाब नहीं हुई जितनी कि हमारे देश में है। अगर हम अपनी भाषायी, क्षेत्रीय, धार्मिक, नस्‍लीय एवं जातीय विभिन्‍नताओं पर गौर करें तो अपने देश की यह आधुनिकता शासन प्रणाली किसी चमत्‍कार से कम नहीं लगती और शायद यह हमारी पहचान भी है। 7 अप्रैल से 16 मई तक हम इसी अनूठे करिश्‍मे का नजारा एक बार फिर देखेंगे। भारत दुनिया का बड़ा प्रजातंत्र है और इतने विशाल देश में विश्‍वसनीय ढंग से निष्‍पक्ष चुनाव कराना आसान काम नहीं है, लेकिन ये हमारे लिय गौरव की बात है कि हर नये चुनाव के साथ हमारा लोकतंत्र और भी मजबूत होता गया है।

(Word Count - 462)

Tuesday, 13 March 2018

खरपतवारों के संरक्षण की ज़रूरत


द‍ुनिया भर में आज पौध संवर्धक फसलों के जंगली सम्‍बंधियों पर खासा ध्‍यान दे रहे हैं। कारण यह है कि इन्‍हीं जंगली सम्‍बंधियों के बल पर हम फसलों की ऐसी नई किस्‍में तैयार करने की उम्‍मीद कर सकते हैं जो जलवायु परिवर्तन का सामना कर सकें। दरअसल फसल सुधार की दृष्टि से फलों के ये जंगली सम्‍बंधी ही सबसे महत्‍वपूर्ण जिनेटिक संसाधन हैं। मगर इस संसाधन की हालत पतली है और यह चिंता का विषय है। 

हाल ही में तैयार की गई एक रिपोर्ट दर्शाती है कि बीच बैंकों में दुनिया भर की 29 अति महत्‍वपूर्ण फसलों के जंगली सम्‍बंधी पौधों का संरक्षण ठीक से नहीं हो रहा है। फसलों से 455 जंगली सम्‍बंधियों के एक विश्‍व व्‍यापी अध्‍ययन में पता चला है कि 54 प्रतिशत तो जीन बैंक में मौजूद ही नहीं हैं। इनमें से कई तो विलुप्‍त होने की कगार पर हैं। 

उक्‍त निष्‍कर्ष कोलंबिया स्थित अंतर्राष्‍ट्रीय कटिबंधीय कृषि केंद्र द्वारा जारी किए गए हैं। इस रिपोर्ट में एक नक्‍शा भी दिया गया है जिसके आधार पर फसलों के जंगली सम्‍बंधियों के संरक्षण की प्राथमिकतांए तय की जा सकती हैं। इस अध्‍ययन में आलू, सेब, गाजर और सूरजमुखी जैसी कई फसलों को शामिल किया गया है जिनके जंगली सम्‍बंधियों का संग्रह बहुत अधिक नहीं किया गया है। दूसरी ओर, ज्‍वार और केले जैसी कुछ फसलें ऐसी भी हैं जिनके जंगली सम्‍बंधी बहुत कम हैं। 

कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां कृषि की शुरूआत हुई थी मगर आज यहां उन फसलों के जंगली सम्‍बंधियों का संग्रह न के बराबर है। इनमें सायप्रस, तुर्की, बोलीविया और भारत शामिल हैं। इनके अलावा उत्‍तरी ऑस्‍ट्रेलिया और पूर्वी यूएस में भी कोई प्रजातियों के संरक्षण की जरूरत है। 

अंतर्राष्‍ट्रीय कटिबंधीय कृषि केंद्र के शोधकर्ताओं ने उक्‍त जानकारी के लिए दो सालों तक विभिन्‍न बीच बैंकों, हर्बेरियम और संग्रहालयों में मौजूद प्रजातियों के आंकड़ों का उपयोग किया है। इसके अलावा उन्‍होंने यह भी देखा कि कोई किस्‍म प्राकृतिक परिवेश में कब देखी गई। इन सबके आधार पर उन्‍होंने उन फसल प्रजातियों की पहचान की जिनके संरक्षण को तत्‍काल प्राथमिकता देने की जरूरत है। इस साल के अंत तक वे 60 अन्‍य प्रजातियों के बारे में भी ऐसा विश्‍लेषण पूरा कर लेंगे। 

शोधकर्ताओं का मत है कि इन जंगली किस्‍मों का संरक्षण बीज-जीन बैंकों के साथ-साथ प्राकृतिक परिवेश में भी करने की जरूरत है। इनके प्राकृतवासों के विनाश के चलते ही इनके अस्तित्‍व पर संकट मंडरा रहा है।

(Word Count - 392)

Sunday, 11 March 2018

अमेरिका और ब्रिटेन रूस पर प्रतिबंध जारी रखने में सहमत


अमेरिका और ब्रिटेन ने रूस पर प्रतिबंधों को तब तक जारी रखने का फैसला किया है जब तक कि रूस यूक्रेन में अपना अतिक्रमण बंद नहीं कर देता। अमेरिका और ब्रिटेन का कहना है कि मास्‍को ने यूरोप के अंतर्राष्‍ट्रीय नियमों का अल्‍लंघन किया है और एक संप्रभु राष्‍ट्र के मामले में जबरन हस्‍तक्षेप किया है। राष्‍ट्रपति बराक ओबामा ने 17 जनवरी को वॉशिंगटन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ड‍ेविड कैमरन के साथ व्‍हाइट में कहा, रूस जब तक यूक्रेन में अपना अतिक्रमण समाप्‍त नहीं करता है, तब तक हम उस पर प्रतिबंध जारी रखने पर सहमत हैं। महत्‍वपूर्ण आर्थिक और लोकतांत्रिक सुधानों को लागू करने के लिए यूक्रेन को मदद की जरूरत है।

कैमरन ने यूरोप में कहा, रूस ने अंतर्राष्‍ट्रीय नियमों का उल्‍लंघन किया है और एक संप्रभु राष्‍ट्र के मामलों में जबरन हस्‍तक्षेप किया है। उन्‍होंने कहा, यह हमारी समृद्धि और स्थिरता के लिए खतरा है। इसे सभी देशेां को समझने की जरूरत है और यूरोप में कोई भी अपने इतिहास को नहीं भूल सकता। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कहा, इसलिए हम यूरोप पर लगातार दबाव बनाए रखेंगे ताकि इस संकट का कूटनीतिक हल निकल सके।

ऑनलाइन सेवाओं की कूट भाषा हो : साइबर खतरे को देश की सबसे गंभीर सुरक्षा चुनौतियों में से उक बताते हुए अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने लोगों को निजता बनाए रखने और आतंकियों का पता लगाने के लिए निजी कंपनियों द्वारा ऑनलाइन सेवाओं की कूट भाषा तैयार करने को कहा है। ओबामा ने शुक्रवार को कहा, मुझे लगता है कि सतत प्रारूप में हमें ऐसी चीज तलाशना है जहां हमारे लोगों को अपनी सरकार में विश्‍वास हो कि वह उनकी रक्षा कर सकते हैं लेकिन साइबर जगत में अपनी क्षमता का दुरूपयेाग नहीं करेंगे। पूरी तरह से इस नई दुनिया के कारण इसके लिए बनाए गए पारंपरिक कानूनों को फिर से आज के हालात के अनुकूल बनाने की जरूरत है। उन्‍होंने कहा, अमेरिका और ब्रिटेन दोनों जगहों पर चर्चा की जरूरत है।

ओबामा ने कहा, अमेरिका में कंपनियां कम से कम यह सुनिश्चित करें कि उनकी लोगों के प्रति जिम्‍मेदारी है। उन्‍होंने कहा, कंपनियों को चाहिए कि उनके उपभोक्‍ता जिन उत्‍पादों का इस्‍तेमाल कर रहे हैं वह उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरें।

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विज्ञान भारत को आर्थिक आज़ादी दिलाएगा - प्रधानमंत्री


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैज्ञानिकों से समाज के अंतिम छोर तक के व्‍यक्ति तक विज्ञान का लाभ पहुंचाने का आव्‍हान किया। मुंबई में 3 जनवरी को 102वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्याटन करते हुए मोदी ने कहा कि विज्ञान की मदद से ही देश की गरीबी दूर की जा सकती है। 

प्रधानमंत्री ने चीज के हालिया विकास का जिक्र करते हुए वैज्ञानिकों को सीधा संदेश दिया है कि प्रगति करने के लिए हमें चीन के नक्‍शे कदम पर चना होगा। चीन आज विश्‍व की दूसरी बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था के रूप के उभर चुका है। इसके पीछे उसकी सफलता का राज यह है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी उसने उसी तेजी से कार्य किया है। 

विज्ञान कांग्रेस के सालाना जलसे को संबोधित करते हुए श्री मोदी ने कहा कि देश के गरीबी और भुखमरी दूर करने के लिए विज्ञान के प्र‍गति जरूरी है। यह एक बच्‍च को जीवित रखने के अवसर भी बढ़ाती है। यह हमें दुनिया में किसी भी कोने में अपने प्र‍िय से जोड़ती है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विज्ञान कांग्रेस के सत्र के दौरान नोबेल विजेता वैज्ञानिकों और विदेशो में बसे भारतीय मूल के बड़े वैज्ञानिकों से आधे घंटे तक अनौचारिक बातचीत की। प्रधानमंत्री ने नोबेल विजेता एवं भारतीय मूल के वैज्ञानिकों को कहा कि जब युरोप और अमेरिका में सर्दी ज्‍यादा हो तब वे शोध के लिए नई दिल्‍ली में आएं। पिछले सौ सालों में डेढ़ सौ से ज्‍यादा नोबेज विजेता विज्ञान कांग्रेस में आ चुके हैं। प्रधानमंत्री हमेशा इस सालाना जलसे का उद्याटन करते हैं लेकिन नोबेल विजेताओं से पहली बार उन्‍होंने आधा घंटे तक बैठक की और विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में आगे बढ़ने के नुस्‍खों पर उनसे चर्चा की। मोदी की यह पहल नई है। इस बातचीत में पांच नोबेल विजेता और चार भारतीय मूल के विदेशी वैज्ञानिक शाामिल थे। जो नोबेल वैज्ञानिकों की बराबरी के स्‍तर के हैं। 

श्री मोदी ने मेक इन इंडिया कार्यक्रम पर भी चर्चा की। इन वैज्ञानिकों में ब्रिटेन के सर पॉल नर्स को 2001 में चिकित्‍सा का नोबेल पुरस्‍कार मिला था। उनका शोध कैंसर से इलाज में सहायक है। इसी प्रकार 2013 का चिकित्‍सा का नोबेल पाने वाले अमेरिका के रैंडी डब्‍ल्‍यू शेकमैन ने कोशिकाओं की परिवाहन प्रणाली और उसके विनियमन के लिए मशीनरी पर शोध किया है। अन्‍य वैज्ञानिकों में स्विट्जरलैंड के कर्ट बुदरिक और इस्‍त्राइल की ऐडा ई योनाथ शामिल हैं। ऐडा को भारतीय मूल के रामकृष्‍ण वेंकटरमण और थॉमस स्‍टैज के साथ संयुक्‍त रूप से नोबेल मिला था। अन्‍य चार भारतीय मूल के वैज्ञानिकों में एबेल प्राइज विजेता एस.आर.एस. वर्धन, रोल्‍फ नेवानल्निना प्राइज विजेता सुभाष खोट, फील्‍ड मेडलिस्‍ट मंजुल भार्गव तथा रोल्‍फ नेवानल्न्निा प्राइज विजेता मधुसूदन शामिल हैं। इन वैज्ञानिकों को मोदी ने गोल्‍ड मेडल से सम्‍मानित किया। 

प्रधानमंत्री ने कहा कि कृषि उत्‍पादन को बढ़ाए जाने की जरूरत है जो किफायती हो और लोगों के जीवन को बेहतर बना सके। उन्‍होंने कहा कि शिक्षा का विस्‍तार, स्‍वच्‍छ ऊर्जा एवं टिकाऊ आवास प्रदान करने में विज्ञान की भूमिका अहम है। लेकिन कभी-कभी विज्ञान असमानता बढ़ाने, पर्यावरण के लिए खतरा पैदा करने या जलवायु परिवर्तन जैसे खतरों के लिए भी जिम्‍मेदार है।

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